छिन्दवाड़ा। छींद के पेड़ों की बहुतायत मात्रा में होने की वजह से इस जिले का नाम छिंदवाड़ा पड़ा था. लेकिन धीरे-धीरे जिन छींद के पेड़ों के नाम पर जिले का नाम पड़ा, वह धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं. इसकी पहचान को कायम रखने के लिए तामिया इलाके के एक समाजसेवी ने छिंद के पत्तों से राखियां बनाई हैं, ताकि जिले की पहचान कायम रहे. पवन श्रीवास्तव का मानना है कि, छींद के पेड़ों से जब लोगों को धनोपार्जन होगा, तो निश्चित ही लोग इन पेड़ों की रक्षा के बारे में सोचेंगे, जिससे छिन्दवाड़ा की पहचान बची रहेगी. (Cheend Tree Chhindwara)
विरासत को बचाए रखना आसान नहीं रहा: इसके पीछे पूरा गणित अर्थशास्त्र पर निर्भर हो गया है. उदाहरण के लिये समझिये कि, किसी मध्यवर्गीय परिवार में किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु हो जाती है तो उनकी छोड़ी हुई विरासत/निशानियों को सहेजकर रख पाना वहाँ मुश्किल होता है, जहाँ लोगों के रहने के लिये जगह कम पड़ रही हो. लेकिन एक धनाढ्य परिवार, जहाँ जगह ही जगह हो. वो अपने बुजुर्गों की चीजों जैसे उनकी बैठक वाली कुर्सी, उनके वाहन, उनका आसन सब सहेजकर रखता है. कुछ ऐसा ही अर्थशास्त्र आज के प्रेक्टिकल समाज में सारी विरासतों पर लागू होता है. विरासत में मिली चीज अगर कुछ दे रही है, तो उपयोगी है अन्यथा अनुपयोगी. (Cheend Tree Chhindwara)
छिंदवाड़ा जिले की पहचान छींद के पेड़ कॉर्न सिटी बन गया छिन्दवाड़ा: सभी जानते हैं कि, छिन्दवाड़ा का नाम छींद के पेड़ों की अधिकता के कारण पड़ा. लेकिन बाजारवाद में छींद दौड़ में टिक न पाया और छींद के कारण पहचाना जाने वाला छिन्दवाड़ा कॉर्न सिटी बन गया. छिन्दवाड़ा की गुम हो रही इस पहचान के चलते तमिया निवासी पवन श्रीवास्तव काफी परेशान थे. उन्हें विरासतों को सहेजने के पीछे का अर्थशास्त्र पता था. वे चाहते थे कि, छिन्दवाड़ा की छींद वाली पहचान बनी रहे. इसके लिये इन्होंने छींद के पेड़ों से लोगों का रोजगार जोड़ने की पहल की. काफी मंथन और सोच विचार के बाद पवन स्थानीय लोगों के साथ छींद के पेड़ों से बनी राखी बनाने में सफल हो गए.
Uttarakhand: बचानी होगी 200 साल पुरानी ये विरासत, आज इस वृक्ष को 'रक्षा' की जरूरत
छिन्दवाड़ा की एतिहासिक पृष्ठभूमि: यह माना जाता है कि, एक समय पर छिंदवाड़ा छीन्द के पेड़ से भरा था और इस जगह का नाम 'छिंदवाड़ा' (वाड़ा का मतलब है जगह) था. छिंदवाड़ा नगर की एक विशेष पहचान है. इसे जंगली खजूर, शुगर डेट पाम, टोडी डेट पाम, सिल्वर डेट पाम, इंडियन डेट पाम आदि नामों से भी जाना जाता है. वानस्पतिक भाषा में इसका नाम फोनिक्स सिल्वेस्ट्रिस है, जो एरेकेसी परिवार का सदस्य है. यह पेड़ उपजाऊ से लेकर बंजर मैदानी भूमि में, सामान्य से लेकर अत्यंत सूखे मैदानी भागों में, सभी तरह की मिट्टी में आसानी से उग जाता है.
खजूर की प्रजाति का होता है छींद: छींद के पेड़ पर चार-पांच वर्ष की उम्र से ही स्वादिष्ट फल लगने लगते हैं, जो देखने में खजूर की तरह ही होते हैं, किंतु इनका आकार थोड़ा छोटा होता है. ये अपेक्षाकृत कम मांसल होते हैं, लेकिन स्वाद में यह जरा भी कमतर नहीं है. जहां एक और इसके फल मीठे और स्वादिष्ट होते हैं, वहीं इसके सेवन से बुखार, कमजोरी, चक्कर आना, गला सूखना, उल्टी आना, जी मचलाना आदि समस्याओं से लाभ मिलता है. इसमें बहुत अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट, फिनोल, एमिनो एसिड, फ्लेवोनॉयड, टेनिन, अल्कलॉइड्स, टरपिनोइडस, फाइबर, विटामिन तथा कई तरह के मिनरल्स पाए जाते हैं. इन सबके अलावा इसका बीज ग्रामीण क्षेत्रों में जायफल, बादाम, हरड़ एवं हल्दी के साथ मिलाकर जन्म घुट्टी में दिया जाता है. जिससे बच्चों का पाचन तंत्र दुरुस्त होता है. (Chhindwara district identity Chhind tree)
गन्ने की शक्कर से सेहतमंद होती हैं छींद की चीनी: कुछ स्थानों पर इसके तनों में छेद करके इससे एक स्वादिष्ट पेय प्राप्त किया जाता है, जो काफी कुछ ताड़ी से मिलता-जुलता होता है, जिसे छींदी कहते हैं. अन्य स्थानों पर इस मीठे रस से गुड़ भी तैयार किया जाता है. जिसे पाम जगरी के नाम से जाना जाता है. जो सामान्य गन्ने से प्राप्त शक्कर से कहीं अधिक सेहतमंद होता है. ग्रामीण क्षेत्रों में जब कोई छींद का पेड़ आंधी और तूफान से टूट कर गिर जाता है, तब ग्रामीण चरवाहे इसके शीर्ष भाग को काटकर तने का कोमल हिस्सा निकालते हैं. जो देखने में तथा स्वाद में पेठे से मिलता-जुलता होता है, इसे खाने का एक अलग ही मजा होता है. एक अन्य नजरिए से देखें तो, इसके कोमल जाइलम में स्टार्च का भंडार होता है.
रोजगार भी देता है छींद: छींद ग्रामीण भारत के लिए अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख साधन भी है. इसकी पत्तियों से निर्मित झाड़ू मजबूती, कार्यक्षमता और टिकाऊपन के मामले में ग्रामीण भारत की पहली पसंद है. वहीं इसके फलों की मजबूत डंठलों का झुंड खेत खलियान की सफाई के लिए झाड़ू की तरह काम करता है. इसकी लंबी-लंबी संयुक्त पत्तियों से बड़े-बड़े टाट तैयार किये जाते हैं, जो बैलगाड़ी को चारों ओर से घेरने के काम आते हैं. ग्रामीण झोपड़ी और जानवरों के अस्तबल, कोठे आदि इन्हीं से बनाते हैं. यह गर्मियों में ठंडक प्रदान करते हैं और सर्दियों में गर्माहट इसीलिए इनका महत्व अधिक बढ़ जाता है.