रांची:वर्तमान समय में प्लास्टिक सिर्फ अभिशाप नहीं वरदान भी है जिसका इस्तेमाल हम जमीन से लेकर आसमान तक में करते हैं. झारखंड में कुछ शर्तों के साथ सिंगल यूज्ड प्लास्टिक के इस्तेमाल पर बैन है लेकिन झारखंड में इसी प्लास्टिक की बदौलत बेरोजगार युवाओं की जिंदगी बदल रही है. सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोकेमिकल्स इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी यानी सीपेट(CIPET) युवाओं का कौशल निखार रहा है. यहां प्रशिक्षण लेने वाले युवाओं के लिए पाइप इंडस्ट्री, ऑटोमोबाइल सेक्टर, प्लास्टिक उत्पाद बनाने वाले क्षेत्रों में रोजगार मिल रहा है. आम तौर पर प्लास्टिक के प्रति यह धारणा बनी हुई है कि यह हानिकारक है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि सभी प्लास्टिक हानिकारक नहीं है बल्कि यह हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है जिसका इस्तेमाल हम धड़ल्ले से सुबह से शाम तक करते हैं.
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कम समय में प्रशिक्षण पाकर बन सकते हैं आत्मनिर्भर
वर्तमान समय में देशभर में 42 सीपेट खोले गए हैं. झारखंड में भी रांची के हेहल में केंद्र सरकार और झारखंड सरकार के सहयोग से संचालित इस संस्थान में 2017 से पढ़ाई शुरू हुई. संस्थान द्वारा शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म डिप्लोमा कोर्स कराया जाता है. जिसके जरिए प्लास्टिक और उससे बनने वाले उत्पाद को मार्केट तक पहुंचाने की बकायदा ट्रेनिंग दी जाती है.
सीपेट रांची के संयुक्त निदेशक प्रवीण बी बछाव की मानें तो इस संस्थान में वर्ल्ड क्लास मशीनें हैं जो क्षण भर में कचरे में फेंके गए प्लास्टिक को रिसाइकिल कर नए-नए प्लास्टिक उत्पाद को तैयार करता है. इन मशीनों की कीमत करीब चार सौ करोड़ है जो केंद्र सरकार की तरफ से मुहैया कराई गई है. वहीं, अन्य संसाधन राज्य सरकार द्वारा दिया गया है. स्वैच्छिक संस्थान होने के कारण सीपेट का वित्तीय प्रबंधन खुद के द्वारा किया जाती है.
ट्रेनिंग पाकर छात्र हो रहे हुनरमंद
सीपेट से ट्रेनिंग लेकर हुनरमंद हुए छात्र न केवल प्लास्टिक के नए-नए उत्पाद को तैयार कर रहे हैं बल्कि डिजाइनिंग और रिसर्च के जरिए इस व्यवसाय को बढ़ाने में लगे हैं. ट्रेनिंग लेने के बाद व्यवसायी बने संजीव कुमार बेहद खुश हैं. सीपेट कैंपस में प्लास्टिक का ब्लॉग बनाने वाले संजीव कुमार का मानना है कि कम समय में प्रशिक्षण पाकर व्यवसाय करने का यह सबसे सुलभ कोर्स है. प्लास्टिक को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं लेकिन यह लाभकारी भी है.
इस संस्थान में 3 वर्ष का दो डिप्लोमा कोर्स कराया जाता है. 10वीं पास करने के बाद बच्चों का राष्ट्रीय स्तर पर चयन परीक्षा के जरिए सलेक्शन किया जाता है. इसके बाद अलावा शॉर्ट टर्म कोर्स भी 3 महीने और 6 महीने का कराया जाता है. करीब 15 एकड़ में फैले इस संस्थान में डिजाइन, टूल रुम, प्रोसेसिंग, इन प्लांट ट्रेनिंग और स्कील डेवलपमेंट के प्रोग्राम के जरिए विद्यार्थी हुनरमंद होते हैं. संस्थान के निदेशक प्रवीण बी बछाव का मानना है कि संस्थान द्वारा 70 फीसदी प्रैक्टिकल ट्रेनिंग मशीन पर दी जाती है और 30 फीसदी थ्योरी है.
सीपेट में ही होती है प्लास्टिक गुणवत्ता की जांच
राज्यभर में सीपेट ही एकमात्र संस्थान है जहां प्लास्टिक की गुणवत्ता की जांच होती है. फिल्म थिकनेस गेज के माध्यम से मशीन में विभिन्न प्लास्टिक उत्पादों की जांच होती है जिसके बाद संस्थान द्वारा सर्टिफिकेट जारी किया जाता है. प्लास्टिक टेस्टिंग लैब के दीपक कुमार की मानें तो यहां काफी सुक्ष्मता से प्लास्टिक का टेस्ट करते हैं जिसका सर्टिफिकेट देश भर में मान्य होता है.
देशभर में 100 माइक्रोन तक के प्लास्टिक उत्पाद पर बैन है. पर्यावरण प्रदूषण को देखते हुए देशभर में इसके खिलाफ अभियान भी चलाया जा रहा है. भविष्य के खतरे को देखते हुए पानी के बोतल से लेकर कैरीबैग जैसे सिंगल यूज प्लास्टिक को सीपेट अपने टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर न केवल रिसाइक्लिंग करने में जुटा है बल्कि इससे उत्पादों को बनाने की ट्रेनिंग देकर युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने में भी जुटा है.