रांची: ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और मजदूरों के पलायन को रोकने के लिए 2005 में लाई गई मनरेगा योजना सरकारी जटिलता की वजह से अपने उद्देश्यों पर खरा नहीं उतर पा रहा है. ग्रामीण मजदूरों को सरकार के द्वारा 100 दिन का सुनिश्चित रोजगार उपलब्ध कराने के लिए 2005 में मनरेगा योजना की शुरुआत की गई. इसके तहत झारखंड में भी ग्रामीण स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने का प्रयास सरकार के द्वारा किया जाता रहा है. मगर विडंबना यह है कि जिस तरह से इस योजना को लेकर प्रारंभ में गंभीरता दिखाई गई, उतनी गंभीरता बाद के दिनों में नहीं देखी गई. जिस वजह से इस योजना के प्रति मजदूर भी उदासीन होते चले गए.
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90-10 की भागीदारी: केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से चल रहे मनरेगा योजना में होने वाले खर्च पर केंद्र सरकार के द्वारा 90% व्यय किया जाता है. जबकि राज्य सरकार के द्वारा 10% की भागीदारी निभाई जाती है. बात यदि मजदूरी की करें ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के तहत सबसे अधिक मजदूरी देश में हरियाणा में 357 रुपया प्रतिदिन मिलता है. जबकि झारखंड में 255 रुपए मिलते हैं, जिसमें राज्य सरकार की ओर से मिलने वाली अतिरिक्त राशि 27 रुपए भी शामिल है.
यही वजह है कि कम मजदूरी और रोजगार गारंटी की अनिश्चितता के साथ-साथ सरकार के द्वारा पैसों के भुगतान में होने वाली बेवजह देरी के कारण झारखंड के मजदूर हरियाणा और मध्य प्रदेश की ओर रुख करते रहते हैं. हालत यह है कि जागरूकता के अभाव में झारखंड के मजदूर को यह पता भी नहीं है कि मनरेगा के तहत जॉब कार्ड कैसे मिलेगा और उन्हें रोजगार कैसे मिलेगी.
सरकार भी मनरेगा को लेकर है चिंतित:इन सबके बीच राज्य सरकार मनरेगा को लेकर चिंतित है, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में इस योजना की बड़ी भागीदारी है. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्य ग्रामीण रोजगार गारंटी परिषद की बैठक में मनरेगा को मजबूत करने के निर्देश दिए हैं. इसके अलावा केन्द्रांश की राशि समय पर उपलब्ध हो इसके लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया है.
उम्मीद पर नहीं उतर रहा खरा:बहरहाल मशीनीकरण के इस युग में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ करने के लिए सरकार ने कोशिश तो जरूर शुरू की. मजदूरों को उनके घर के आसपास 100 दिनों का रोजगार सुनिश्चित कराकर पलायन से रोकने का प्रयास किया गया. मगर सरकारी जटिलता की वजह से यह योजना उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है.