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झारखंड में यूं ही नहीं होती डोभा पर राजनीति, सूख रहा है उम्मीदों का पानी, पढ़ें रिपोर्ट

झारखंड में भू-गर्भ जल स्तर को बढ़ाने के लिए 2016 में तत्कालीन रघुवर दास सरकार ने डोभा निर्माण की मुहिम शुरू की थी. पूरे राज्य में इस अभियान को जोर शोर से शुरू किया गया, लेकिन इसे लेकर राजनीति भी जमकर हुई, क्योंकि डोभा में डूबने से तकरीबन 40 लोगों की मौत हो चुकी है.

Politics on Dobha construction in Jharkhand
Politics on Dobha construction in Jharkhand

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Published : May 4, 2022, 8:25 PM IST

रांची: झारखंड में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है. ऐसे में डोभा निर्माण अभियान फिर से सुर्खियों में है. दरअसल, झारखंड में भू-गर्भ जल स्तर को मेंटेन कैसे रखा जाए, इसे ध्यान में रखते हुए डोभा यानी छोटे तालाब के निर्माण के लिए अभियान शुरू हुआ था. इसके पीछे सोच यह भी थी कि डोभा बनने से न सिर्फ रोजगार का सृजन होगा बल्कि वर्षाजल के संरक्षण से मछली पालन, गांवों में खेती, स्नान और जानवरों के लिए पानी की व्यवस्था हो जाएगी. लिहाजा, पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के निर्देश पर साल 2016 में डोभा निर्माण की मुहिम शुरू हुई. उसी साल जून माह तक 1,59,070 डोभा के निर्माण का लक्ष्य रखा गया. काम भी जोर शोर से शुरू हुआ. लेकिन यह अभियान राजनीति का हिस्सा बनता रहा. अबतक 40 लोगों की डोभा में डूबने से मौत हो चुकी है. पीड़ित परिवारों के बीच मुआवजे के रूप में 20 लाख रुपए बांटे जा चुके हैं. अब सवाल है कि झारखंड में बन रहे और बन चुके डोभों की स्थिति क्या है. इसको जानने के लिए जब आंकड़ों को बारीकी से जांचा गया तो चौकाने वाली बातें सामने आई.

दरअसल, 2016-17 से 2021-22 तक पूरे राज्य में मनरेगा के तहत 2,14,792 स्वीकृत योजनाओं की तुलना में 1,70,583 डोभा का निर्माण हो चुका है. शेष 44,210 डोभा निर्माणाधीन है. लेकिन 3 मार्च 2021 को जारी विभागीय पत्रांक 333 के आलोक में विशेष टीम बनाकर जब 1,315 डोभा की जांच की गई तो इनमें से 354 डोभा में एक बूंद पानी नहीं मिला. इस लिहाज से करीब 27 प्रतिशत यानी 45,921 डोभा ऐसे हैं जहां पानी नहीं है.

आपको जानकर हैरानी होगी कि एक डोभा के निर्माण में 23 हजार से लेकर 56 हजार रुपए तक खर्च होते हैं. यहां मनरेगा के तहत 30'X30'X10' से लेकर 100'X100'X10 तक के डोभा का निर्माण होता है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि 1.70 लाख डोभा निर्माण पर कितनी राशि खर्च की जा चुकी है. खास बात है कि समय के साथ डोभा निर्माण के प्रति उदासीनता बढ़ी है. साल 2016-17 में 1,07,898 डोभा निर्माण का लक्ष्य था. इसकी तुलना में 1,07,585 का निर्माण भी हुआ. तब यह अभियान खूब सुर्खियों में रहा. निर्माण में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार के खूब आरोप लगे. विपक्ष ने डोभा को मौत का कुआं करार दिया. नतीजा यह हुआ कि अगले ही साल 2017-18 में डोभा निर्माण की सिर्फ 19,485 योजनाएं स्वीकृत हुई. वहीं 2018-19 में 14,637 और 2019-20 में 16,680 योजनाएं स्वीकृत हुई. लेकिन साल 2020-21 में कोविड की एंट्री की वजह से मनरेगा के तहत रोजगार सृजन के लिए 43,508 डोभा के निर्माण को स्वीकृति मिली. लेकिन 2021-22 में यह संख्या घटकर 12,385 पर पहुंच गई.

क्यों कारगर साबित नहीं हो रहा है डोभा: पर्यावरणविद् नीतीश प्रयदर्शी का कहना है कि ग्राउंड वाटर को रिचार्ज करने में डोभा की अच्छी भूमिका रही है. लेकिन ज्यादातर डोभा में पानी ही नहीं है. जितने डोभा का निर्माण का दावा किया जाता है उतना कहीं नजर नहीं आता. दूसरी बात यह कि प्लान में गड़बड़ी हुई है. कहीं भी मिट्टी काटकर सीढ़ीनुमा गड्ढा बना देने भर से वर्षाजल संरक्षित नहीं हो पाएगा. इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट ने डोभा के इंपेक्ट एसेसमेंट के क्रम में कई सुझाव दिए हैं. मसलन, डोभा के साथ कुआं का निर्माण किया जाना चाहिए. डोभा में सिल्ट भरने से जलधारण क्षमता कम हो जाती है. इसके लिए समय-समय पर डोभा से गाद को निकालना होगा. कई बार पानी भर जाने से कच्ची सीढ़ियां टूट जाती हैं. बाद में यही डोभा गड्ढे का रूप ले लेता है. जिसका उपयोग करना घातक होता है. हालांकि यह बात भी सही है कि डोभा की वजह से सब्जी की खेती और मछली-बत्तख पालन को बढ़ावा मिला है. यह वहीं संभव हो पाया है जहां के ग्रामीण जागरूक रहे हैं.

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