रांची: 21 फरवरी को पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है. दुनिया में भाषा और सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा देने के साथ ही मातृ भाषा के प्रति लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से इसकी शुरुआत की गई थी. भाषाओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए इस मुहिम को शुरू की गई थी, लेकिन आज शायद अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के उद्देश्यों को समाज पूरा नहीं कर पा रहा है और ना ही अपनी मातृभाषा को बचा पा रहे हैं.
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अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा
मातृभाषा संस्कारों की संवाहक है. मातृभाषा के बिना किसी भी देश की संस्कृति की कल्पना नहीं हो सकती है. मातृ भाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना भी प्रेरित करती है. मातृभाषा दिवस को लेकर हम बड़ी-बड़ी बातें जरूर करते हैं. अपनी भाषा को बचाने को लेकर हम कई घोषणाएं करते हैं, लेकिन असल जीवन में अपने ही भाषाओं को हम भूलते जा रहे हैं.
सार्वजनिक स्थानों पर हम अपनी भाषा से बातचीत करने में हिचकिचाते हैं. धीरे-धीरे यह भाषा विलुप्ति की कगार पर हैं. भले ही बांग्लादेश के भाषा आंदोलन दिवस को अंतरराष्ट्रीय सुकृति मिली और उसी के बाद अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा हुई, लेकिन भारत में भी मातृभाषा को बचाने के लिए लोगों को आगे आने की जरूरत है.
भाषाओं के उत्थान पर ध्यान देने की जरुरत
अगर हम झारखंड के परिदृश्य की बात करें तो यहां कुल 32 जनजातीय भाषा हैं, जिसमें 8 आदिम जनजातीय भाषा है. इसमें से 8 आदिम जनजाति की भाषा विलुप्ति की कगार पर हैं. यहां के लोगों की ओर से बोली जाने वाली स्थानीय भाषा आज कहीं ना कहीं गुम सी हो गई है.
इन भाषाओं के उत्थान के लिए राज्य भर में जो शिक्षण संस्थाएं संचालित हो रहे हैं. उन शिक्षण संस्थानों में भी इन भाषाओं को संरक्षित करने को लेकर कोई विशेष उपाय नहीं की जा रही है. इसी वजह से ये भाषाएं उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं. रांची विश्वविद्यालय के अंतर्गत अधिकतर कॉलेजों और पीजी विभाग में इन भाषाओं की पढ़ाई होती है, जिसमें खासकर रांची विश्वविद्यालय के पीजी विभाग में 9 जनजातीय भाषा विभाग की पढ़ाई हो रही है और यहां भी लोग इन भाषाओं को तवज्जों नहीं दे रहे हैं.
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भाषाओं को सुरक्षित रखना मुश्किल
रांची विश्वविद्यालय में जनजातीय भाषा विभाग के पठन-पाठन और इससे जुड़ी गतिविधियों को लेकर शिक्षकों की भारी कमी है. पीजी विभाग में मात्र 2 स्थाई शिक्षक है, जबकि यहां 9 भाषाओं से जुड़े रिसर्च और पठन-पाठन जनजातीय भाषा विभाग में होता है. इस विभाग के विभागाध्यक्ष की मानें तो विभाग समेत आरयू में इन भाषाओं के विशेषज्ञ शिक्षकों की कमी के कारण इन भाषाओं को सुरक्षित रखना अब परेशानी भरा हो गया है. इसमें जनजाति और आदिम जनजातियों से जुड़े ऐसी भाषाएं हैं, जो झारखंड के लिए काफी महत्वपूर्ण और कीमती है. इनमें से आठ जनजातिय भाषाएं तो विलुप्ति के कगार पर है. झारखंड में लगभग 24 जनजातियां और आठ आदिम जनजातियां है. इनकी भाषाओं में अंतर जरूर है, लेकिन मिलती-जुलती कई भाषाएं हैं.
विलुप्ति के कगार पर आदिम जनजाति से जुड़ी भाषाएं
राज्य की कुल आबादी की 27 फीसदी जनजातियों की दूसरी जनजाति की संपर्क भाषा हिंदी, बांग्ला और नागपुरी है. झारखंड के 17 जिलों में खोरठा भाषा बोली जाती है. कोल्हान प्रमंडल के 8 जिलों में नागपुरी, संथाल परगना में संथाली और ऐसे ही हर क्षेत्र में झारखंड में भाषाएं बदलती हैं. रांची के आसपास के प्रखंडों में बांग्ला से मिलता-जुलता भाषा पंच परगनिया बोली जाती है, लेकिन विलुप्ति के कगार पर भाषाओं को संरक्षण करने को लेकर झारखंड सरकार की ओर से फिलहाल कोई वृहद रूप से योजना नहीं बनाई गई है. आदिम जनजाति से जुड़ी भाषाएं तो विलुप्ति के कगार पर है. इनमें असुर, सौरिया पहाड़िया, पहाड़िया माल, परहिया, कोरबा, बिरजिया, बिरहोर और सबर जैसे आदिम जनजातियों की भाषाएं हैं.