नई दिल्ली: कांग्रेस के चिंतन शिविर में उत्तर भारत की राजनीति को मजबूती से पकड़ना और पूर्वोत्तर समीकरण को साधना दोनों प्राथमिकता में है. सवाल यह है कि जिस स्थिति में कांग्रेस है अगर उसके राज्य के अनुसार बात करें तो बिहार में 1990 से राष्ट्रीय जनता दल के पीछे की सियासत कर रही कांग्रेस एकजुटता की लड़ाई लड़ रही है और हाल के दिनों में विधानसभा चुनाव की बात रही हो या फिर एमएलसी के चुनाव में कांग्रेस को जिस तरीके से राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने किनारे किया है उससे एकजुटता पर बड़ा सवाल उठ रहा है. बात पड़ोसी राज्य झारखंड की करें तो यहां पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ कांग्रेस सरकार में है, लेकिन विवाद का चोली दामन जैसा रिश्ता हो गया है. हर 2 महीने पर हेमंत सोरेन से होने वाले विवाद का समझौता करने के लिए सभी कांग्रेस के नेता दिल्ली दरबार में फरियाद करते हैं, एक नीति बनती है लेकिन जमीन तक उतरती नहीं.
उत्तर प्रदेश बात की करें तो 2022 में हुए चुनाव में नरेंद्र मोदी के विकास का मॉडल और योगी के 5 सालों की तपस्या का परिणाम ऐसा हुआ कि प्रियंका गांधी की सियासत ही जमींदोज हो गई. लड़की हूं लड़ सकती हूं का नारा तो जरूर दिया लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस कहीं दिखाई ही नहीं दी. स्थिति यहां तक पहुंची कि प्रियंका गांधी ने अपने बयानों में यह कह दिया था कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के अलावा सरकार बनती है तो बगैर कांग्रेस के नहीं बनेगी और जो सरकार उत्तर प्रदेश में बनी उसने कांग्रेस का पूरा सूपड़ा ही साफ कर दिया. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी की लड़ाई में कांग्रेस का कोई आधार ही नहीं दिखा. जमीनी लड़ाई की बात कौन करे जमीन पर खड़ा होना मुश्किल दिखा जो लोग अपने थे वह भी दामन छोड़ के दूसरा रास्ता पकड़ लिए. सियासत में वजूद की लड़ाई ही कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लड़ रही है.
पंजाब में पार्टी ने कैप्टन बनाम सिद्धू और सिद्धू बनाम कांग्रेस किसी सियासी झगड़े को खड़ा किया, उसका पूरा फायदा आम आदमी पार्टी उठा ले गई. यह अलग बात है कि बीजेपी उसमें बहुत कुछ नहीं कर पाई. मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में 2018 में सरकार तो जरूर बनी लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के रुख बदलने से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की गद्दी जाती रही और यहीं से कांग्रेस की एकजुटता की कहानी सवालों में आ गई या एकजुट करने के लिए चिंतन शिविर के लिए मुद्दे भी मजबूती से खड़े हो गए कि आखिर इतने सवालों का उत्तर आएगा कहां से?
कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ की राजनीति में टिकी हुई है. सरकार भी कांग्रेस की है तो ऐसे में समीकरण भी बन रहा है कि 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में 2018 में जिस तरीके की बढ़त मिली थी उसे फिर से पा लिया जाए. क्योंकि 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए चुनाव में तीनों स्थानों पर कांग्रेस जीती थी. यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार तो बच गई लेकिन मध्य प्रदेश में सरकार चली गई. विवाद राजस्थान में भी कम नहीं है क्योंकि अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट का जो झगड़ा चल रहा है, वह कांग्रेस की स्थिरता पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा करता है. क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद दिल्ली दरबार में जिस तरीके से अशोक गहलोत और सचिन पायलट दौड़ लगा रहे थे उसमें पूरी राजनीति ही इस सवालों के साथ आ गई थी कि राजस्थान में चुनाव लड़ना है तो दिल्ली जाओ सरकार बनाना है तो दिल्ली जाओ मंत्री बनाना है तो दिल्ली जाओ विकास लाना है तो दिल्ली जाओ और दोनों राजस्थान के नेता दिल्ली जा रहे थे. हालांकि बदले हुए राजनीतिक हालात में 2022 में दिल्ली अब राजस्थान आ रहा है तो देखने वाली बात यह है कि यहां से उठने वाली आवाज कितनी दमदार होती है और विवादों को किनारे कर के एक बार फिर से कांग्रेस के जमीन और जनाधार को मजबूत करती है. क्योंकि यह भी एक बड़ा सवाल है कि जहां कांग्रेस बची रहे, उसे बचाना कांग्रेस की पहली और अंतिम चुनौती भी है.
बात दक्षिण भारत की करें तो कर्नाटक में डीके शिवकुमार कांग्रेस के पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं लेकिन यहां भी पार्टी विवादों से ऊपर नहीं जा पा रही है. कर्नाटक में पार्टी की एकजुटता इस आधार पर सवालों में है कि वोट बैंक के बढ़ने का कोई आधार दिख नहीं रहा है और जमीन पर कांग्रेस बहुत ज्यादा काम करती भी नहीं दिख रही है. बात तमिलनाडु की करें तो डीएमके के साथ कांग्रेस का गठबंधन तो जरूर है लेकिन जमीन पर कांग्रेस का कोई आधार नहीं है. हां केरल में जरूर कांग्रेस का आधार इस आधार पर मजबूत है कि सदन में विपक्ष की बड़ी पार्टी है लेकिन जमीन पर आज भी अंतर्विरोध की लड़ाई लड़ रही है. तेलंगाना में पार्टी की मजबूती और जनाधार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2022 के चिंतन शिविर की बैठक के ठीक पहले राहुल गांधी अगर किसी राज्य के दौरे पर थे वह तेलंगाना था और ओवैसी विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम भी करना चाहते थे लेकिन यहां की सरकार ने अनुमति ही नहीं दी. पार्टी का इतना भी मजबूत आधार नहीं था कि वह फिर से यहां पर किसी तरह की चीज से उसे खड़ा कर पाए. तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी भले ही उसके लिए एकजुटता की कोशिश कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस को एकजुट करना तेलंगाना में भी मुश्किल हो गया है क्योंकि तेलंगाना के जितने बड़े नेता थे उन्हें टीआरएस में इतनी मजबूत हिस्सेदारी जरूर मिली हुई है कि बिखरती कांग्रेस की सबसे बड़ी कहानी वहीं से लिख दी गई. आंध्र प्रदेश की भी स्थिति वही है. आंध्र प्रदेश के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सैला जय नाथ इस कोशिश में तो जरूर लगे हैं कि कांग्रेस को मजबूत कर लिया जाए लेकिन यहां भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत होती नहीं दिख रही है इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के भीतर मची वह लड़ाई है जिसे रोक पाने के लिए एक केंद्रीय नेतृत्व को और मजबूत केंद्रीय नेतृत्व का होना बहुत जरूरी है जो कांग्रेस में अभी भी खाली दिख रही है.
कांग्रेस अगर विगत 10 सालों में बीजेपी को सबसे बड़ी चुनौती या देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती का आधार कहीं से खड़ा कर पाती थी तो जम्मू कश्मीर की वह राजनीति जो पूरे देश के लिए चिंता भी पैदा करती थी और चिंतन भी होता था वहां भी कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है. कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष गुलाम मीर लगातार पार्टी को मजबूत करने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन आपस में विवाद और लगातार कांग्रेस के भीतर मचे घमासान से पार्टी कमजोर होती जा रही है. बचाने की कोशिश तो जरूर हो रही है लेकिन पार्टी के नेता लगातार अपने पदों से इस्तीफा दे रहे हैं. जिससे कांग्रेस वहां कमजोर हो रही है और इसका सबसे बड़ा फायदा जिस कश्मीर में बीजेपी के विरोध की बात होती थी अब फायदे के रूप में देखा जा रहा है.