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यहां ढोल-नगाड़ों के साथ निकाली जाती है शव यात्रा, रोने की बजाए लोग करते हैं पंशारा नृत्य

अतीत के साथ ही ये परंपरा अब उत्तरकाशी के रवांई घाटी के कुछ गांव तक ही सिमटी हुई है. जिसमें पंशारा लोकनृत्य का कोई सानी नहीं होता था. यह एक समृद्ध संस्कृति की जीती जागती तस्वीर थी लेकिन अतीत की ये तस्वीर अब बदलते परिवेश में समाप्त होती जा रही है.

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Published : May 28, 2019, 6:04 PM IST

उत्तरकाशी: देवभूमि अपनी अतीत की परंपराओं के लिए भी जानी जाती है. जहां की परंपरा अपने आप में काफी अनूठी है. आपने अकसर किसी की भी मौत पर लोगों को रोते-बिलखते और मातम मनाते देखा होगा. लेकिन आज हम आपको ऐसी हकीकत से रूबरू कराने जा रहे हैं. जिसको सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे. जी हां ठीक सुना आपने सीमांत जनपद उत्तरकाशी के बाजगी समाज के लोग बुजर्ग व्यक्ति की भी मौत पर पंशारा नृत्य करते हैं. जो प्रथा अतीत से चली आ रही है.

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अतीत के साथ ही ये परंपरा अब उत्तरकाशी के रवांई घाटी के कुछ गांव तक ही सिमटी हुई है. स्थानीय लोगों का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से यहां गांव दूर-दूर होते हैं. वहीं पहाड़ी में बसे होने से कई गांवों के श्मशान घाट काफी दूर होते हैं. पहले जब रवांई घाटी में जब किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो बाजगी समाज के लोगों को घाट पहुंचने में दो दिन से अधिक का समय लग जाता था. साथ ही जब गांव के कोई समृद्ध या सम्मानित बुजुर्ग की मौत होती थी तो उनकी शव यात्रा में परिजन और रिश्तेदार अधिक से अधिक ढोल- दमाऊ लाते थे. समृद्धि के अनुसार शव यात्रा चलती थी, जिसमें पंशारा लोकनृत्य का कोई सानी नहीं होता था. यह एक समृद्ध संस्कृति की जीती जागती तस्वीर थी लेकिन अतीत की ये तस्वीर अब बदलते परिवेश में समाप्त होती जा रही है.

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इस दौरान जहां पर शव यात्रा का आराम का केंद्र होता था, वहां पर बाजगी अपनी ढोल विद्या की कलाबाजियों का प्रदर्शन करते थे. इस दौरान शव यात्रा में शामिल व्यक्ति अपनी इच्छानुसार बाजगियों को नकद पुरस्कार भी देते थे.

वरिष्ठ पत्रकार लोकेंद्र बिष्ट ने बताया कि कभी पंशारा लोकनृत्य की परंपरा उत्तरकाशी की गंगा घाटी में हुआ करती थी. लेकिन आज यह संस्कृति मात्र रवांई घाटी के कुछ गांव तक ही सीमित रह गए हैं. बहुत कम गांव में ऐसे बाजगी समुदाय के लोग हैं जो कि इस पंशारा लोकनृत्य की ढोल विद्या को जानते हैं. कहा कि रवांई की एक शव यात्रा के दौरान उन्होंने स्वयं पहली बार पंशारा लोकनृत्य को देखा और बाजगियों की कला व ढोल विद्या का आज भी कोई सानी नहीं है. साथ ही यह एक समृद्ध संस्कृति की जीती जागती तस्वीर है, लेकिन यह आज विलुप्त होती जा रही है.

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