रांचीः देश में सर्वोच्च संवैधानिक राष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव होना है और एनडीए की ओर से द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाई गयी हैं. पहली बार देशभर के जनजातीय यानि आदिवासी समाज में उत्साह का संचार होना स्वाभाविक है. ओडिशा सरकार में मंत्री और बाद में झारखंड के राज्यपाल के रूप में अपनी प्रतिभा और प्रशासनिक नेतृत्व क्षमता का परिचय दे चुकीं द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने से देश और झारखंड के आम आदिवासी समुदाय का जनजीवन कितना बदल जाएगा यह एक अहम सवाल भी है. ऐसा इसलिए क्योंकि झारखंड में जनजातीय राजनीति के नाम पर शिबू सोरेन, अर्जुन मुंडा, बाबूलाल मरांडी और अब हेमंत सोरेन जैसे दर्जनों की संख्या में वैसे आदिवासी नेता हैं या हुए, जिन्होंने देश और राज्य की राजनीति में अपनी पहचान तो बनाई. लेकिन इन जनप्रतिनिधियों ने सिवाय राजनीति के कुछ नहीं किया और ना ही आदिवासी समाज के लिए व्यापक रूप से कोई बड़ा काम कर पाए.
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वर्ष 2000 में झारखंड अलग राज्य होने के बाद ऐसा लगा था कि झारखंड का यह समाज भी तरक्की करेगा मगर इस समाज के गिने-चुने लोगों तक ही विकास की रोशनी पहुंच पाई. आदिवासी आज भी दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज है. राज्य से आज भी ना सिर्फ पुरुष बल्कि बड़ी संख्या में महिलाएं काम की तलाश में दूसरे राज्य जाने को मजबूर हैं. दुखद यह कि नौकरी और रोजी रोटी की तलाश में झारखंड के सुदूर इलाकों से जब झारखंड की आदिवासी बेटियां महानगरों में जाती हैं तो वह वहां मानव तस्करी का शिकार हो अमानवीय स्थितियों का सामना करती हैं.
अपनी कला और संस्कृति के माध्यम से विश्व भर में झारखंड के नाम रौशन करने वाले पद्मश्री मुकुंद नायक कहते हैं कि मुझे लगता है और बहुत चिंता का विषय है कि एक ओर हम आजादी के 75 साल होने पर अमृत महोत्सव मना रहे हैं. लेकिन आदिवासी समुदाय राज्य में और पूरे देश में कहां खड़ा है इस ओर देखने की जरूरत है. बिरसा मुंडा, सिदो कान्हो, जतरा भगत, फूलो-झानो ने अपनी शहादत दी लेकिन लगता है कि उन वीर सपूतों की शहादत बेकार चली गयी.