रांची:1932 खतियान के आधार पर स्थानीयता (1932 Khatian Based Domicile Policy) तय करने के हेमंत सरकार के फैसले ने उसके परंपरागत गढ़ "संथाल" को और ज्यादा सुरक्षित कर दिया है. अब सवाल है कि झामुमो के नये राजनीतिक गढ़ के रूप में विकसित कोल्हान में इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है. इसपर जानकारों का मंतव्य जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर कोल्हान ने झामुमो को क्या दिया है. यह क्षेत्र झामुमो के लिए क्यों मायने रखते है. (Effect of Domicile Policy on Kolhan)
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झारखंड की राजनीति में संथाल को झामुमो का गढ़ कहा जाता है. 2019 के चुनावी नतीजों के बाद इस लिस्ट में कोल्हान का नाम भी जुड़ गया है. यह इलाका भी आदिवासी बहुल है. यहां संथाल की सात एसटी सीटों की तुलना में सबसे ज्यादा नौ सीटें रिजर्व हैं. इनमें से आठ सीटों पर झामुमों का कब्जा है. एक सीट कांग्रेस के पाले में है. संथाल की कुल 18 सीटों के मुकाबले यहां की कुल 14 सीटों में 11 सीट झामुमों के खाते में हैं. शेष तीन में जगन्नाथपुर और पश्चिमी सिंहभूम में कांग्रेस और जमशेदपुर पूर्वी में निर्दलीय विधायक सरयू राय काबिज हैं. यहां भाजपा का सूपड़ा साफ हो चुका है. भाजपा इस झटके से अबतक नहीं उबर पाई है. खास बात है कि 2014 के चुनाव में कोल्हान से भाजपा के खाते में पांच सीटें गईं थीं. इससे साफ है कि झामुमो के लिए कोल्हान कितना मायने रखना रखता है. यही वजह है कि हेमंत मंत्रिमंडल में शामिल दस मंत्रियों में कोल्हान से झामुमो के चंपई सोरेन और जोबा मांझी के अलावा कांग्रेस के बन्ना गुप्ता को जगह मिली है.
अब सवाल है कि 1932 के खतियान को आधार बनाकर स्थानीयता तय करने का हेमंत सरकार का फैसला झामुमो के इस नये गढ़ में क्या प्रभाव डाल सकता है. क्योंकि जगन्नाथपुर रिजर्व सीट से राजनीति करने वाला कोड़ा परिवार राज्य सरकार के फैसले से आहत है. पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा खुले तौर पर कह चुके हैं कि 1932 के खतियान को आधार बनाने से कोल्हान जल उठेगा. क्योंकि कोल्हान के ज्यादातर लोग सर्वे सेटलमेंट 1934, 1958, 1964-65 और 1970-72 के जमीन पट्टा और खतियान धारक हैं. 1932 के कारण सिंहभूम और सरायकेला के लाखों लोग स्थानीयता के लाभ से वंचित हो जाएंगे. लिहाजा, 1932 के जगह केवल खतियान आधारित स्थानीयता तय करना चाहिए.
कोल्हान से जनजातीय मामलों के जानकार मुकेश बिरूआ ने बताया कि सरकार के इस फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसमें कुछ बदलाव करने की जरूरत है. मसलन, 1932 के बजाए अंतिम सर्वे सेटलमेंट को आधार बनाया जाना चाहिए. दूसरी मांग यह है कि वंशानुगत वंशावली को भी आधार बनाया जाना चाहिए. तीसरी मांग है कि जो खतियानधारी हैं उन्हें स्थानीय प्रमाण पत्र और जो लंबे समय से यहां बसे हुए हैं या रह रहे हैं उन्हें भी विकल्प दिया जाए. उनका सुझाव यह भी है कि कंडिका 8 में जिक्र है कि यह तभी लागू होगा, जब संविधान की नौंवी अनूसूची में शामिल किया जाएगा. इसपर सवाल उठाए जा रहे हैं. अलग-अलग संगठन की मांग है कि इस कंडिका को विलोपित कर दिया जाए. मुकेश बिरूआ ने कहा कि अगर सरकार ने इसमें बदलाव नहीं किया तो आगामी चुनाव में झामुमो को कोल्हान में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा.
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दूसरी तरफ सरकार में शामिल कांग्रेस और राजद भी इस फैसले से बैकफुट है. मंत्री बन्ना गुप्ता ने पिछले दिनों भोजपुरी भाषा का इस्तेमाल कर कई संकेत दिए थे. दूसरी तरफ कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय भी कह चुके हैं कि सभी के हितों का ख्याल रखा जाएगा. जानकारों का कहना है कि झारखंड में 1932 शब्द इमोशन से जुड़ा हुआ है. संथाल में इसकी प्रासंगिकता है. लेकिन पूरे राज्य के संदर्भ में 1932 के खतियान को आधार नहीं बनाया जा सकता. सूत्रों का कहना है कि सरकार भी इसको समझ रही है. इसलिए आने वाले समय में 1932 के खतियान की जगह सिर्फ खतियान शब्द के इस्तेमाल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.
संथाल और कोल्हान में फर्क:झारखंड में कुल 32 जनजातियां हैं. लेकिन पूरे राज्य में संथाल ट्राइब की बहुलता है. संथाल प्रमंडल में संथाल जनजाति की आबादी सबसे ज्यादा है. जबकि कोल्हान में 'हो' जनजाति की संख्या 90 प्रतिशत है. दूसरे स्थान पर उरांव ट्राइब हैं. आबादी के लिहाज से तीसरे स्थान पर मुंडा और चौथे स्थान पर हो समुदाय का नाम आता है. शेष जनजातियों की संख्या सीमित है. सभी जनजातियां प्रकृति से जुड़ी हुई हैं लेकिन सबकी भाषाएं अलग हैं. इनके रीति रिवाज भी अलग हैं. अब सवाल है कि कोल्हान में जब हो जनजाति का प्रभाव है तो फिर संथाल समाज के चंपई सोरेन और जोबा मांझी को मंत्रिमंडल में जगह क्यों मिली है. जानकारों का कहना है कि दोनों नेताओं का परिवार झारखंड आंदोलन से निकला है. इसलिए कोल्हान में इनको तवज्जो दिया जाता है.
सत्ता में कोल्हान की जबरदस्त पैठ:झारखंड बनने के बाद से वर्तमान सरकार को छोड़ दें तो अब तक इस राज्य ने जितने मुख्यमंत्री देखे हैं. इनमें सिर्फ रघुवर दास ही एक मात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. उनसे पहले थोड़े-थोड़े समय के लिए अर्जुन मुंडा तीन बार, शिबू सोरेन तीन बार, बाबूलाल मरांडी एक बार, मधु कोड़ा एक बार और हेमंत सोरेन एक बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इनमें से हेमंत सोरेन, शिबू सोरेन और बाबूलाल मरांडी के रूप में संथाल ने सत्ता तक पहुंचाया. इस मामले में कोल्हान का पलड़ा भारी रहा है. यहां से अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा और रघुवर दास सीएम रह चुके हैं.