रांचीः देश के प्रथम व्यक्ति के लिए द्रौपदी मुर्मू का निर्वाचन होने के बाद आदिवासी समाज में चर्चा शुरू हो गई. देश का विकास तब होगा जब समाज के अंतिम पायदान पर बैठे व्यक्ति की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास में मजबूत हिस्सेदारी होगी. जो शोषित, वंचित और दबे-कुचले हैं, जब उस वर्ग की आवाज देश की सर्वोच्च कुर्सी से उठेगी तब वास्तव में विकास की रफ्तार बढ़ेगी. इसके लिए जरूरी है समाज का संपन्न तबका उसके लिए कार्य करे और यह भारत के विकास की मूल आत्मा होगी. इसी उम्मीद के साथ जनजातीय समाज में नई ऊर्जा का संचार जरूर हो रहा है. लेकिन 6 साल तक आदिवासी राज्य झारखंड में राज्यपाल रह चुकीं द्रौपदी मुर्मू का इस प्रदेश से गहरा लगाव रहा.
झारखंड से खून का रिश्ताः दौपदी मुर्मू ने 18 मई 2015 को झारखंड की राज्यपाल के रूप में शपथ ली. राज्यपाल के रूप में उनका पांच साल का कार्यकाल 18 मई 2020 को समाप्त होना था. लेकिन कोविड महामारी के कारण एक साल कार्यकाल और बढ़ा दिया गया. इसके बाद 12 जुलाई 2021 को उन्होंने झारखंड से विदा लिया. अपनी विदाई से पहले राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि झारखंड से उनका खून का रिश्ता है.
इस विदाई समारोह में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के कार्यकाल का स्मरण करते हुए कहा था कि राज्यपाल के रूप में इनके द्वारा किए गए कार्य सदैव हम सभी के लिए अनुकरणीय रहेंगे. इनके मार्गदर्शन और दिशा निर्देश से राज्य ने लंबी यात्रा तय की. मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्यपाल ने बेहतर मार्गदर्शन और समन्वय से राज्य में गुड गवर्नेंस का उदाहरण पेश किया. इन्होंने कई कठिन निर्णय को सरलता से लेते हुए समस्याओं का समाधान किया. साथ ही राज्य के हर वर्ग के लोगों के प्रति इनका विशेष लगाव और प्यार था. हर वर्ग के लोगों के साथ इनका सीधा संवाद निश्चित रूप से काफी सराहनीय रहा. इन्होंने सभी तबके के लोगों को जोड़ कर रखा. राज्य के दलित, गरीब, पिछड़ों के बेहतरी और विकास के लिए इन्होंने प्रतिबद्धता के साथ प्रयास किया.
झारखंड की राज्यपाल के रूप में उनका 6 साल से अधिक का कार्यकाल न केवल गैर-विवादास्पद रहा, बल्कि यादगार भी रहा. द्रौपदी को राज्यपाल के रूप में छह साल से अधिक का समृद्ध अनुभव है. उन्होंने आदिवासी मामलों, शिक्षा, कानून व्यवस्था और झारखंड के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों से हमेशा अवगत थीं. कई मौकों पर उन्होंने राज्य सरकारों के फैसलों पर सवाल उठाया लेकिन हमेशा संवैधानिक गरिमा और शालीनता के साथ। विश्वविद्यालयों की पदेन कुलाधिपति के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान राज्य के कई विश्वविद्यालयों में कुलपति और प्रति-कुलपति के रिक्त पदों पर नियुक्ति हुई थी. द्रौपदी मुर्मू ने खुद झारखंड में उच्च शिक्षा से संबंधित मुद्दों पर लोक अदालतों का आयोजन किया, जिसमें विश्वविद्यालय के शिक्षकों और कर्मचारियों के लगभग 5,000 मामलों का निपटारा किया गया. उन्होंने राज्य के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में नामांकन प्रक्रिया को केंद्रीकृत करने के लिए कुलाधिपति का पोर्टल बनाया.
बतौर राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासी हित में लिया था बड़ा फैसलाः झारखंड में रघुवर दास के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी. जून 2017 को उन्होंने रघुवर दास के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा भेजे गए सीएनटी-एसपीटी संशोधन विधेयक को वापस कर दिया. उनके इस फैसले से झारखंड की राजनीति गरमा गई. इसका असर 2019 के विधानसभा चुनाव में भी दिखा. पांच साल तक डंके की चोट पर चली रघुवर सरकार को जनता ने नकार दिया. आदिवासी सीटों पर भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा. द्रौपदी मुर्मू ने उस बिल को वापस नहीं किया होता तो शायद 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को और बड़ी कीमत चुकानी पड़ती.
द्रौपदी मुर्मू ने दिया था इस सवाल का जवाबः झारखंड की राज्यपाल के रूप में कार्यकाल खत्म होने के बाद ओडिशा के रायरंगपुर स्थित अपने पैतृक गांव जाने से पहले उन्होंने विधेयक को लौटाने की वजह बतायी थी. उन्होंने कहा कि संशोधन विधेयक को विधानसभा से पारित कराकर भेजा गया था. विधेयक के राजभवन पहुंचते ही आपत्तियां आनी शुरू हो गई थीं तब करीब 200 आपत्तियां आई थीं. इसे लेकर उन्होंने खुद उस समय के मुख्यमंत्री रहे रघुवर दास और मुख्य सचिव राजबाला वर्मा से चर्चा की थी. सभी पहलूओं पर सहमति बनने के बाद ही विधेयक को वापस लौटाया था. तबतक यह मामला तूल पकड़ चुका था. रघुवर सरकार बैकफुट पर थी. आनन फानन में सरकार को बिल वापस करने की घोषणा करनी पड़ी. उस समय रघुवर सरकार में मंत्री रहे सरयू राय ने कहा था कि राज्यपाल ने पुनर्विचार के लिए लौटाए गए बिल के संदेश में विधेयक के प्रस्तावना पर सवाल खड़े किए थे. उद्देश्य में भी भ्रम था. द्रौपदी मुर्मू ने पूछा था कि सीएनटी एक्ट की धारा 71ए में संशोधन का जो प्रस्ताव है, वैसा एसपीटी एक्ट में क्यों नहीं है.
द्रौपदी मुर्मू की अध्यात्म में रूचिः द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति का चुनाव जीत चुकी हैं. वह भारत की पहली आदिवासी महिला होंगी, जो राष्ट्रपति बनेंगी. वह ओडिशा के अपरबेड़ा गांव से आतीं हैं. उनके गांव में जश्न का माहौल है. द्रौपदी मुर्मू अपनी सादगी के लिए जानी जाती हैं. वह प्याज-लहसुन का भी इस्तेमाल नहीं करती हैं. उनकी पूरी जिंदगी खुली किताब की तरह है. वह बिल्कुल ही सादा जीवन जीती हैं. हालांकि, वह ओडिशा में मंत्री भी रह चुकी हैं. और उसके बाद वह झारखंड की राज्यपाल भी रह चुकी हैं. इसके बाद भी उनकी जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं आया. मुर्मू का देश और दुनिया में अध्यात्म का अलख जगा रही प्रजापिता ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक संस्थान से गहरा जुड़ाव रहा है. 2009 में वह इस आध्यात्मिक संस्थान से जुड़ीं और ब्रह्माकुमारी बहनों ने उन्हें राजयोग मेडिटेशन सिखाया था. कहा जाता है कि 2009 से ही उन्होंने प्याज और लहसुन का भी त्याग कर दिया था. उनका कहना है कि राजयोग मेडिटेशन और संस्था के ज्ञान ने उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने में बहुत मदद की है.