रांचीः झारखंड में पौने तीन साल से चल रही मौजूदा गठबंधन सरकार में कांग्रेस पार्टनर जरूर है, लेकिन सरकार के भीतर-बाहर वह कभी पॉवरफुल नहीं दिखी. झामुमो कांग्रेस राजद सरकार के तमाम बड़े फैसलों में जहां मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपनी शोमैनशिप की छाप साफ छोड़ने में कामयाब रहे (CM Hemant Soren dominance ) हैं, वहीं उनके बगल में खड़ी कांग्रेस कभी मर्जी तो कभी मजबूरी में सहमति की मुद्रा में सिर हिलाती नजर आती है.
झारखंड में पॉवर में रहकर भी पॉवरफुल नहीं बन पाई कांग्रेस, कई फैसलों में दिखा हेमंत सोरेन का दबदबा
झारखंड में पॉवर में रहकर भी कांग्रेस पॉवरफुल नहीं बन पाई. बीते दिनों झारखंड महागठबंधन सरकार और झारखंड की राजनीति में जेएमएम कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेने ने कई ऐसे फैसले लिए हैं जिसमें सीएम हेमंत सोरेन का दबदबा दिखता (CM Hemant Soren dominance) है. कई मामलों में असंतुष्टि के बाद भी कांग्रेस कुछ कर नहीं सकी. पढ़ें पूरी रिपोर्ट
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कांग्रेस कोटे के मंत्रियों, पार्टी के विधायकों और नेताओं-कार्यकर्ताओं को भी अपनी सियासी मजबूरी, कमजोरी का अहसास है. कई मौकों पर बयानों-भाषणों में उनका यह दर्द छलक भी उठता है. बहरहाल हर बार सरकार के फैसलों में गठबंधन सहयोगियों की जगह हेमंत की छाप ही दिखाई देती है.
झारखंड डोमिसाइल पॉलिसी का कट ऑफः हेमंत सोरेन सरकार ने इसी महीने कैबिनेट की बैठक में 1932 के कट ऑफ डेट वाली राज्य की नई डोमिसाइल पॉलिसी पर मुहर लगाई तो कांग्रेस इसपर एकमत नहीं दिखी. पार्टी के कई नेता अपनी ही सरकार के इस फैसले के खिलाफ मुखर तौर पर सामने आए. कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा, उनके पति पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और झरिया की कांग्रेस विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह ने इस पॉलिसी को अव्यवहारिक करार दिया.
कांग्रेस कोटे के मंत्री बन्ना गुप्ता इस पॉलिसी पर मुहर लगाने वाली कैबिनेट की बैठक में शामिल थे, लेकिन इसके दूसरे दिन से ही कहते फिर रहे हैं कि झारखंड में रहने वाला हर व्यक्ति झारखंडी है. वह जोर देकर कह रहे हैं कि यहां कोई बाहरी-भीतरी नहीं है, जबकि डोमिसाइल पॉलिसी में यह प्रावधान किया गया है कि जिन लोगों के पूर्वजों के नाम राज्य में 1932 में जमीन सर्वे के कागजात (खतियान) में नहीं होंगे, उन्हें झारखंड का डोमिसाइल यानी स्थानीय निवासी नहीं माना जाएगा.
इस फैसले में भी दिखा दबदबाः इसके पहले मई-जून महीने में राज्यसभा की एक सीट पर दावेदारी को लेकर कांग्रेस-झामुमो के बीच तकरार इस कदर बढ़ गई थी कि कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी से दिल्ली में मुलाकात के अगले ही रोज मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झामुमो की ओर से एकतरफा निर्णय लेकर अपनी पार्टी का प्रत्याशी उतार दिया था. इस पर कांग्रेस ने पहले गहरी नाराजगी जताई और राज्यसभा प्रत्याशी के नामांकन के दौरान पार्टी ने झामुमो से दूरी बना ली.
तब ऐसा लगा कि राज्य में झामुमो और कांग्रेस की साझीदारी पर आंच आ सकती है, लेकिन दो दिन बाद ही जब राज्यसभा चुनाव रिजल्ट आया तो कांग्रेस गिले-शिकवे भूलकर झामुमो उम्मीदवार महुआ माजी की जीत के जश्न में शरीक हो चुकी थी.
राष्ट्रपति चुनाव में भी अलग राहः जुलाई महीने में राष्ट्रपति चुनाव में झामुमो ने जब अप्रत्याशित तौर पर भाजपा की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट का फैसला लिया तो कांग्रेस नेताओं ने उसे यूपीए गठबंधन धर्म की याद जरूर दिलाई, लेकिन इसे सियासी मजबूरी ही कहेंगे कि कांग्रेस इस मुद्दे पर सीधे-सीधे झामुमो से कुट्टी करने की स्थिति में नहीं थी. बल्कि राष्ट्रपति चुनाव में उल्टे कांग्रेस के 18 में से 9 विधायकों ने पार्टी के निर्देश को दरकिनार कर द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में क्रॉस वोटिंग कर दी. कांग्रेस नेतृत्व ने कहा कि क्रॉस वोटिंग करने वाले पार्टी विधायकों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, लेकिन कुछ ही दिनों में यह बात 'आई-गई' हो गई.
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तकरार की दिखी झलकः इसके पहले फरवरी महीने में कांग्रेस ने गिरिडीह के मधुवन में तीन दिनों का चिंतन शिविर आयोजित किया था, जिसमें कांग्रेस कोटे के मंत्री बन्ना गुप्ता ने यहां तक कह दिया था कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ही राज्य में कांग्रेस को खत्म करने पर तुले हैं.
इस शिविर में कई अन्य नेताओं ने कहा था कि सरकार के भीतर पार्टी बेचारी बनकर रह गई है. इस शिविर के बाद पार्टी के नेताओं की मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ बैठक हुई. सरकार के गठबंधन दलों की को-ऑर्डिनेशन कमेटी बनाने का फैसला हुआ और सब कुछ काफी हद तक सामान्य हो गया.
हाल में हेमंत सोरेन की विधानसभा सदस्यता को लेकर चुनाव आयोग की अनुशंसा की खबरों से राज्य में जब सियासी अनिश्चितता की स्थिति पैदा हुई तो कांग्रेस पूरी तरह सोरेन के साथ खड़ी दिखी, लेकिन पार्टी को अपने विधायकों को 'ऑपरेशन कमल' के खतरों से बचाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी. विधायकों को एकजुट रखने के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के रिसॉर्ट में रखना पड़ा.
इस घटना से भी उठे सवालः इसके पहले जुलाई में भी कांग्रेस विधायकों के एक बड़े समूह की भाजपा के साथ डील होने की खबरें सामने आ रहीं थीं और इसी दौरान 30 जुलाई को कांग्रेस के तीन विधायकों इरफान अंसारी, राजेश कच्छप और नमन विक्सल कोंगाड़ी को कथित तौर पर इस डील के एवज में पहली किश्त में मिले 48 लाख रुपये कैश के साथ कोलकाता में गिरफ्तार कर लिया गया. इस घटना के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने इन तीनों विधायकों को सस्पेंड कर रखा है.
कांग्रेस विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने इन तीनों की विधानसभा सदस्यता रद्द करने के लिए स्पीकर के न्यायाधिकरण में लिखित तौर पर अर्जी दे रखी है. जाहिर है अपने ही विधायकों के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई कांग्रेस के लिए सुखकर स्थिति नहीं है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की गुजारिश के साथ कहा कि अगर इन तीनों विधायकों की विधानसभा सदस्यता खत्म की गई तो तय मानिए कि पार्टी में विद्रोह का बड़ा बवंडर पैदा होगा.
यहां भी नाराजगीः हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार में कांग्रेस कोटे के चार मंत्री हैं- आलमगीर आलम, डॉ. रामेश्वर उरांव, बन्ना गुप्ता और बादल पत्रलेख. पार्टी के कई विधायक और नेता अपनी ही पार्टी के मंत्रियों की कार्यशैली पर नाराजगी जताते रहे हैं.
पार्टी के भीतर मंत्रियों को बदलने की आवाज भी कई बार उठ चुकी है. कुछ माह पहले तय हुआ था कि पार्टी के मंत्री प्रत्येक शनिवार को पार्टी कार्यालय में जनता दरबार लगाएंगे. इसकी शुरुआत भी हुई, लेकिन तीन-चार हफ्ते में ही यह सिलसिला बंद हो गया. राज्य में कांग्रेस के 18 विधायकों में पांच महिलाएं हैं.
महिलाओं की शिकायतः महिला विधायकों की शिकायत है कि पहली बार इतनी संख्या में जीतकर आने के बाद भी प्रदेश सरकार में किसी महिला विधायक को मंत्री की बर्थ नहीं मिली. एक महिला विधायक कहती हैं कि एक तरफ पार्टी 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का नारा देती है तो दूसरी तरफ झारखंड में जीतकर आई महिलाओं में किसी को मंत्री के लायक नहीं समझा जाता. इस विरोधाभास को दूर करने की जरूरत है.
झारखंड में कांग्रेस के आंतरिक संगठन की सेहत भी बहुत अच्छी नहीं, राज्य में सत्ता यानी पॉवर की बदौलत कांग्रेस के पास पार्टी संगठन के कल-पुर्जों को चमक देने का जो मौका था या है, उसका इस्तेमाल करने से भी वह चूक गई लगती है.
आलम यह है कि वर्ष 2017 से लेकर आज तक पार्टी में प्रदेश कमेटी तक का गठन नहीं हो पाया. पांच सालों से प्रदेश में पार्टी संगठन की नैया प्रदेश अध्यक्ष, तीन-चार कार्यकारी अध्यक्षों और कुछ प्रवक्ताओं के भरोसे पार हो रही है.
प्रदेश कांग्रेस कमेटी ही नहीं बनीः पांच-छह साल में भी झारखंड में प्रदेश कांग्रेस की कमेटी क्यों नहीं बन पाई? इस सवाल पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने कहते हैं कि इस बार प्रदेश कमेटी के गठन के पहले की तमाम प्रक्रियाएं पूरी कर ली गई हैं. उम्मीद है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव संपन्न होने के कुछ दिनों बाद ही प्रदेश कमेटी की घोषणा कर दी जाएगी. ठाकुर ने कहा कि राज्य में 319 प्रखंडों के अध्यक्षों का चुनाव हो चुका है और 10 अक्टूबर तक हर प्रखंड में 25 से 30 सदस्यीय कमेटी का गठन कर लिया जाएगा.
319 पीसीसी डेलिगेट का भी चुनाव कर लिया गया है. जिला अध्यक्षों के चुनाव के लिए इस बार पार्टी ने बकायदा योग्य दावेदारों का इंटरव्यू कराया है. इंटरव्यू के मार्क्स केंद्रीय कमेटी को भेजे जा चुके हैं. अनुमोदन मिलते ही जिला अध्यक्षों के नाम का ऐलान जल्द कर दिया जाएगा.