रांची: 2021 तमाम राजनीतिक संभावनाओं के साथ चला गया. 2022 नई उम्मीदों के साथ आ रहा है लेकिन नीतीश की जेडीयू के पास कई चुनौतियां हैं जो 2021 छोड़कर जा रहा है उससे 2022 में नीतीश कुमार को लड़ना होगा. 2021 के बिहार के सियासी उठापटक में नीतीश कुमार ने ललन को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बना दिया लेकिन राष्ट्रीय पार्टी बनाने के लिए नीतीश के ललन को बहुत मेहनत करना पड़ेगा. झारखंड उसकी एक बानगी है.
झारखंड में जदयू
जनता दल यू के राजनीतिक सफर पर नजर डाला जाए तो 2005 में झारखंड के बंटवारे के बाद हुए पहले चुनाव में जदयू ने भाजपा के साथ हिस्सेदारी ली थी. 18 सीटों पर जदयू चुनाव लड़ी थी और 6 सीटों पर जदयू को जीत मिली थी. बात वोट प्रतिशत की करें तो लगभग 4.6% वोट जनता दल यू के खाते में आया था. वहीं 2009 में हुए विधानसभा चुनाव की अगर बात करें तो, 14 सीटों पर जदयू चुनाव लड़ी थी लेकिन सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई. वोट प्रतिशत भी 2.7 हो गया और उसके बाद बने राजनीतिक हालात में जदयू अपना जमीनी आधार ही झारखंड में खोज रही है. 2014 में जदयू का खाता नहीं खुला. वहीं 2019 में जदयू कुल 40 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. सभी सीटें जदयू हार गई और 68 फीसदी सीटों पर जदयू की जमानत जब्त हो गई. हालात यहां तक बद से बदतर हुए कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष तक अपनी जीत नहीं दर्ज कर पाए.
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दरअसल, नीतीश की पार्टी जदयू को लेकर के झारखंड की सियासत में यह चर्चा जरूर रहती है कि पड़ोसी राज्य होने के नाते झारखंड बिहार की उस राजनीति का असर जरूर सियासत में आ सकता है, जो पड़ोसी राज्य में होता है. नीतीश कुमार ने जिस तरीके से बिहार की राजनीति में महिलाओं को लेकर काम करना शुरू किया. माना जा रहा था कि पड़ोसी राज्य, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल में इसका असर दिखेगा. लेकिन अंतिम समय तक इसका बहुत ज्यादा प्रभाव दिखा नहीं. 2014 में जिस राजनीति को नीतीश कुमार ने अपने जिम्मे लिया था उसमें भाजपा से विरोध की राजनीति साफ-साफ थी. लेकिन भाजपा के विरोध के लिए झारखंड में बहुत कुछ करने की स्थिति में भी नीतीश नहीं दिखे. हालात यहां तक हो गया कि 2014 में पार्टी भले चुनाव लड़ रही थी लेकिन नीतीश कुमार प्रचार करने तक झारखंड नहीं गए. हवा 2019 के भी वैसे ही रहे. झारखंड में बीजेपी से अलग जाकर के पार्टी चुनाव लड़ी. 40 सीटों पर उम्मीदवार उतारे लेकिन जीत एक भी सीट पर नहीं हो पाई. अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या नितीश की नीतियां झारखंड में कारगर नहीं है और अगर नीतीश की नीतियां पड़ोसी राज्य में ही कारगर नहीं है तो सवाल उठ रहा है कि उन नीतियों पर एक बार विचार जरूर करना चाहिए.
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के कई ऐसे बड़े निर्णय हैं, जो सराहे तो खूब गए. लेकिन 2020 के चुनाव में जिस परिणाम की उम्मीद नीतीश कुमार को थी वह उन्हें बिहार में भी नहीं मिली. 2019 में झारखंड में विधानसभा चुनाव था. माना यह जा रहा था कि नीतीश कुमार का शराबबंदी कानून लाना, नीतीश कुमार का दहेज बंदी कानून लाना, लड़कियों के लिए साइकिल योजना, किताब योजना, पोशाक योजना इसके साथ ही सरकारी नौकरी में महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण और पंचायतों में 50 फीसदी महिलाओं के लिए आरक्षण देना नीतीश कुमार के गांव के विकास के लिए सात निश्चय भाग एक और सात निश्चय पार्ट 2. ऐसी बड़ी योजनाएं थी जो झारखंड और बिहार की बड़ी आबादी को प्रभावित भी करती हैं. यह कहा जाता है कि अगर झारखंड बिहार से अलग नहीं हुआ था तो बिहार की हर नीति झारखंड पर लागू होती थी और आज यह कहा जाता है कि बिहार अगर शरीर है तो झारखंड उस दिल की धड़कन. लेकिन राजनीतिक रूप से देखें तो बिहार और झारखंड में अब इतनी राजनीतिक दूरी हो गई है कि बिहार की कोई भी राजनीतिक नीति झारखंड में काम नहीं आती और यही वजह है कि जो पार्टियां संयुक्त बिहार झारखंड में बिहार और झारखंड की राजनीति करती रही हैं. आज उन्हें झारखंड की राजनीति में अपने लिए राजनीतिक जमीन तलाशनी पड़ रही है.
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14 नवंबर 2021 को बिहार के मुख्यमंत्री से झारखंड का प्रतिनिधिमंडल मिला था. खीरू महतो झारखंड जदयू के प्रदेश अध्यक्ष हैं. झारखंड का प्रतिनिधिमंडल ललन सिंह के साथ नीतीश कुमार से मिला था और कहा था कि झारखंड में पार्टी की गतिविधियों को बढ़ाने के लिए काम करने की जरूरत है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब 2019 में पार्टी 40 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी और नीतीश कुमार प्रचार करने तक नहीं गए तो आगे किस नीति को लेकर के झारखंड जाएंगे. शराबबंदी का बहुत बड़ा मामला झारखंड की राजनीति में नीतीश कुमार भजा नहीं पाएंगे. महिला आरक्षण वाली राजनीति भी झारखंड की सियासत में चलेगी नहीं, दहेज बंदी और शराबबंदी के कानून का कोई बहुत असर झारखंड की सियासत में इसलिए भी नहीं था कि नीतीश कुमार को छोड़कर के जो भी जदयू के बड़े नेता थे उन्होंने 2019 में अपनी पार्टी को जिताने के लिए पूरा दम लगा दिया था. लेकिन पार्टी के अधिकांश सीटों पर जमानत जब्त हो गई. हर नेता की जुबान पर नीतीश कुमार की शराबबंदी दहेज बंदी, सात निश्चय, महिलाओं के आरक्षण, पंचायतों में आरक्षण जैसे मुद्दे ही भाषण के हिस्से में थे, लेकिन उसके बाद भी सीट का हिस्सा जदयू के खाते में नहीं आया.
2022 के लिए जदयू की राजनीति झारखंड में इसलिए चर्चा में आई है कि झारखंड के नेताओं के बीच इस बात की आहट है कि इतने बड़े सामाजिक मुद्दों को लेकर नीतीश कुमार चले थे उसका फलाफल तो और जनता को मिलना चाहिए. झारखंड के उन इलाकों में शायद नीतीश कुमार को बहुत जगह ना मिले जो आज भी विकास के उजाले से काफी दूर है. लेकिन वह झारखंड जो नीतीश कुमार वाले बिहार के सीमा से लगा हुआ है, वहां पर इन्हें उम्मीद थी कि बहुत कुछ नीतीश के खाते में आ सकता है और यही उम्मीद 2022 की तैयारी के लिए झारखंड जदयू को तैयार भी कर रही है. प्रवीण सिंह को झारखंड का प्रभारी बनाया गया है. प्रवीण सिंह पहले झारखंड विकास मोर्चा बाबूलाल मरांडी वाली पार्टी के कर्ताधर्ता थे. अब नीतीश वाले पार्टी के झारखंड प्रभारी हैं. जनमत और जनाधार कितना बड़ा है नहीं कहा जा सकता लेकिन चुनौती बहुत बड़ी है.
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यह बिल्कुल साफ है अगर एक छोटी सी बात चाचा और भतीजे वाली सियासत की यहां कर दी जाए तो 2019 में चाचा वाली पार्टी ने पूरा दम लगाया था और अधिक आंसर सीटों पर जमानत जब्त हो गई. भतीजा तेजस्वी, पार्टी लेकर के गठबंधन में गए थे बहुत कुछ तो नहीं लेकिन एक सीट पर जीत जरूर दर्ज हुई और झारखंड सरकार में मंत्री भी बने. अब सियासत एक नए तरीके से झारखंड की राजनीति में मुद्दों वाली बिहार की राजनीतिक दलों के आगे की राजनीतिक जमीन को तलाशने में दिशा को खोज रही है कि मुद्दों की कौन सी राजनीति लेकर के बिहार वाले राजनैतिक दल अब झारखंड की सियासत को करेंगे. क्योंकि झारखंड में जब राजनीति चुनाव में थी तो जमानत जब्त करवा चुके हैं. अब जब जमानत को जनता के जनाधार को पार्टी का आधार बनाएंगे, यह 2022 के लक्ष्य में है. लेकिन होगा कैसे यह बड़ा सवाल है कि गुजरे वक्त तो लगातार यही कहती रही है कि बहार बिहार में है और नीतीश कुमार हैं. तो झारखंड में क्या होगा यह बड़ा सवाल में है?