रांची: भाजपा के चाणक्य अमित शाह ने पिछले दिनों चाईबासा में आकर 2024 के चुनाव का झारखंड चैप्टर खोल दिया है. अगले महीने राजमहल का भी दौरा प्रस्तावित है . झारखंड की यही दो लोकसभा सीटें थीं जो 2019 के चुनाव में भाजपा की झोली में नहीं आई थीं. अमित शाह के गणित से साफ है कि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर कितनी बारीकी से तैयारी कर रही है.
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भाजपा साथ ही साथ 2019 की जीती हुई सीटों को बचाए रखना बड़ी चुनौती है. लिहाजा, झारखंड के बदले राजनीतिक माहौल को देखते हुए भाजपा संगठन के भीतर भी " खतियानी जोहार " की अहमियत पर चर्चा होने लगी है. क्योंकि झारखंड में जहां भाजपा राजनीतिक परसेप्सशन तय करती थी, उसे अब हेमंत सोरेन कर रहे हैं. हाल के दिनों में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कुछ ऐसे फैसले लिए हैं, जिनसे खासकर "मूलवासी " झारखंड की राजनीति के केंद्र में आ चुके हैं.
इसकी वजह भी है. एसटी के बीच पार्टी की पकड़ कमजोर हो चुकी है. 2014 में विधानसभा की 28 में से 14 एसटी सीटें जीतने वाली भाजपा 2019 में दो सीट पर सिमट गई. अब डर इस बात का है कि कहीं मूलवासी भी न खिसकने लगें. यह मसला भाजपा के लिए दोधारी तलवार की तरह है. क्योंकि यहां के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले तथाकथित बाहरी, भाजपा के कोर वोटर माने जाते हैं. बदले हालात के बावजूद पार्टी अपने कोर वोटर को हाथ से नहीं निकलने देना चाहेगी.
भाजपा में कौन है प्रवासी और कौन है मूलवासी: 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के बल पर पार्टी ने 14 में से 11 सीटों पर जीत दर्ज की थी. जबकि गिरिडीह सीट अपने सहयोगी आजसू को दिया था. लेकिन 11 सीटों में छह सीटें वैसे लोगों को मिलीं जो यहां के मूलवासी नहीं माने जाते हैं. इनमें जयंत सिन्हा, सुनील सिंह, बीडी राम, संजय सेठ, निशिकांत दूबे और पीएन सिंह का नाम शुमार है. पार्टी में चर्चा इस बात की होने लगी है कि क्या इन सांसदों का संबंधित संसदीय क्षेत्र में अपना कोई जनाधार है.
इसकी बानगी तो 2019 के लोकसभा चुनाव में ही दिख गई थी, जब चतरा में भाजपा के ही कार्यकर्ताओं ने टिकट बंटने से पहले सुनील सिंह को बाहरी करार देते हुए विरोध का स्वर बुलंद कर दिया था. हालाकि पार्टी ने तब सुनील सिंह पर ही विश्वास जताया था. लेकिन अब सवाल है कि क्या झारखंड के बदले राजनीतिक माहौल में चतरा जैसी आग दूसरे लोकसभा क्षेत्रों में भी पहुंचेगी ? क्या भाजपा दोबारा उस जोखिम को उठाने की स्थिति में है ? इसलिए भाजपा में भीतरखाने इस बात की भी चर्चा है कि क्यों न सामान्य सीटों पर यहां के मूलवासियों को आगे बढ़ाया जाए. चाहे वो किसी भी बिरादरी के क्यों न हों. क्योंकि बाहरी-भीतरी की राजनीति में भाजपा कमजोर पड़ती दिख रही है.
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गौर करने वाली बात यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में झारखंड की 14 में से 11 सीटें जीतने के बावजूद पांच एसटी सीटों में से सिर्फ तीन ही जीत पाई थी. उसमें भी खूंटी और लोहरदगा की जीत का अंतर बेहद मामूली था. आदिवासी वोट बैंक बिखरने का असर 2019 के विधानसभा चुनाव में भी दिखा था. जब पार्टी 14 एसटी सीटों की जगह 2 सीट पर सिमट गई थी. चूकि अब झारखंड की राजनीति का परसेप्सशन 1932 खतियान आधारित स्थानीयता के ईर्द-गिर्द घूम रहा है, ऐसे में भाजपा में भी " खतियानी जोहार " की चर्चा तेज हो गई है. क्योंकि तथाकथित बाहरी या प्रवासी वोटर राज्य के चार बड़े शहरों मसलन, रांची, धनबाद, जमशेदपुर और बोकारो के शहरी सीटों तक ही सीमित हैं.
क्या अध्यक्ष भी होगा खतियानी : पिछले हफ्ते भाजपा ने जे.पी.नड्डा को जून 2024 तक के लिए अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया है. इस बीच झारखंड के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश का कार्यकाल भी फरवरी में खत्म होने वाला है. अब चर्चा हो रही है कि क्या दीपक प्रकाश को भी जे.पी.नड्डा की तरह एक्सटेंशन मिलेगा या बागडोर किसी और को थमाया जाएगा. झारखंड में अबतक भाजपा के किसी भी अध्यक्ष को एक्सटेंशन नहीं मिला है. इसको आधार बनाकर पार्टी के भीतर चर्चा तेज है कि वर्तमान हालात में इसबार किसी मूलवासी को ही कमान देना ठीक रहेगा क्योंकि 2019 के चुनाव में विपक्ष ने रघुवर दास के छत्तीसगढ़ी बताकर भाजपा को घेरा था. अध्यक्ष पद के लिए मूलवासी (चाहे किसी बिरादरी का हो) की चर्चा की वजह यह भी है कि विधायक दल के नेता की जिम्मेवारी बाबूलाल मरांडी के पास है. पार्टी की परिपाटी के मुताबिक दोनों पद एक बिरादरी को नहीं दिया जाता है.