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पलामू के इन दो गांवों में कलम उठाने की उम्र में लड़कियों ने उठाया हथियार, जाने महिला नक्सलियों की दास्तान - पलामू प्रमंडलीय मुख्यालय मेदिनीनगर पलामू

पलामू में तीन साल पहले लकड़ी चुनने जंगल निकली कुछ लड़कियां नक्सली बन गईं. जिसमें कुछ आज जिंदा हैं तो कुछ मुठभेड़ में मारी गई. और कुछ का बस शव घर लौटा था. आज भी पाल्हे और तुरकुन गांव(Palhe and Turkun Villages) के लोग इस खौफनाक मंजर को भुला नहीं पाए हैं.

girls from palhe and turkun villages became naxalites in palamu district
कलम उठाने की उम्र में नक्सली बनी लड़कियां, किसी फिल्म से कम नहीं पलामू की ये कहानी

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Published : Jun 28, 2021, 1:51 PM IST

Updated : Jun 28, 2021, 2:20 PM IST

पलामू: जिस उम्र में उठाया जाना था कलम, उस उम्र में मासूमों ने उठा लिए हथियार. गुड़ियों से खेलने की उम्र में गोलियों से खेली. आज से तीन साल पहले पलामू के पाल्हे और तुरकुन इन दो गांवों की लड़कियां लकड़ी चुनने निकली थी, लेकिन नक्सली बनकर लौटीं. कुछ लड़कियों के शव घर लौटे और कुछ सलाखों के पीछे नजर आईं. आज भी गांव के लोग इसे भुला नहीं पाए हैं. लोगों को इंतजार है कुछ ऐसा चमत्कार होने की, कि फिर कोई मासूम कलम की जगह हाथों में हथियार ना थामे.

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जानें मुठभेड़ की कहानी
पलामू प्रमंडलीय मुख्यालय मेदिनीनगर से करीब 70 किलोमीटर दूर मौजूद है पाल्हे और तुरकुन गांव. दोनों गांव नौडीहा बाजार थाना क्षेत्र(Naudiha Bazar Police Station Area) में है और पहाड़ियों से घिरा हुआ है. दोनों गांव की लड़कियां लकड़ी चुनने के लिए जंगल गई और एक-एक कर नक्सली दस्ते में शामिल हो गई. फिर अचानक फरवरी 2018 में पाल्हे और तुरकुन गांव चर्चा में आ गए. फरवरी 2018 में एंटी नक्सल अभियान(Anti Naxal Operation) के दौरान सुरक्षाबलों की माओवादी(Maoist) के साथ दो बार मुठभेड़ हुई थी. इसी मुठभेड़(Encounter) में दो महिला नक्सली मारी गई थी, जबकि चार गिरफ्तार हुई थी. सभी महिला नक्सली पाल्हे और तुरकुन गांव की थीं. गांव की आज भी एक महिला नक्सली जेल में है, जबकि दो गांव में रह रही हैं.

भागकर घर आने के बावजूद नक्सली दस्ते में भेजी गई लड़कियां

एक महिला नक्सली के भाई ने बताया कि उनकी बहन नक्सली दस्ते से वापस घर आ गई थी. फिर दोबारा नक्सली दस्ता उनके गांव पहुंचा था. उन पर दबाव बनाकर बहन को दस्ते में फिर से शामिल कर लिया. इस दौरान वो डर से कुछ बोल भी नहीं पाए. एक महिला ने बताया कि उसकी बेटी लौट चुकी थी, वो दस्ते में शामिल नहीं होना चाहती थी. उसने उन्हें बताया था कि काफी पैदल चलना पड़ता है और वजन भी उठाना पड़ता है, लेकिन वो मेला घूमने के बहाने गई और फिर से दस्ते में शामिल हो गई.

आज भी खौफ में हैं गांव के लोग

गांवों का परिचय
पाल्हे और तुरकुन गांव (Palhe Turkun) में करीब 50 से 55 घर हैं. दोनों गांव में सरकारी स्कूल के भवनों को छोड़ दिया जाए, तो कोई भी सरकारी योजना का बोर्ड नजर नहीं आएगा. दोनों विकास योजनाओं से काफी दूर है. दोनों गांव आज भी सरकारी योजनाओं के लिए अपने रहनुमा का इंतजार कर रहे हैं. पाल्हे और तुरकुन जाने के लिए एक मात्र साधन पैदल है. गांव में साइकिल भी नहीं जा सकती है. ग्रामीण पहाड़ के नीचे साइकिल को खुलेआम छोड़ देते हैं, पहाड़ से उतरने के बाद ग्रामीण साइकिल का इस्तेमाल कर नजदीक के बाजार सरइडीह जाते हैं. दोनों गांव में करीब डेढ़ घंटे की लगातार पहाड़ चढ़ाई के बाद पंहुचा जा सकता है. दोनों गांवों में पुलिस को छोड़कर कोई भी सरकारी तंत्र नहीं पंहुचा है.

Last Updated : Jun 28, 2021, 2:20 PM IST

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