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साल बदले पर नहीं बदली आदिवासी समुदाय के लोगों की बदहाली की तस्वीर, पत्तल बेचकर भूख मिटाने को मजबूर

झारखंड में आदिवासी समुदाय के लोगों के विकास के लिए सरकार ने कई वादे किए. इसके लिए कई योजनाओं को भी लाया गया, लेकिन उन योजनाओं को धरातल पर नहीं उतारा जा सका, जिसके कारण आज भी इस समुदाय के लोग पत्तल बेचकर जीवन यापन करने को मजबूर हैं.

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महिलाएं पत्तल बेचकर जीने को मजबूर

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Published : May 13, 2021, 6:29 AM IST

Updated : May 13, 2021, 12:20 PM IST

पाकुड़: झारखंड में गरीबी मिटाने, लोगों को रोजगार से जोड़ने का सरकार लगातार वादा करती रही है, लेकिन सरकारी दावों की धरातल पर सच्चाई कुछ और ही है. पाकुड़ में वन के आंचल में रहकर आदिवासी और आदिम जनजाति समाज के लोग वनोत्पाद से अपनी पेट की भूख एक युग से मिटाते आ रहे हैं. इस समुदाय के लोगों के विकास के लिए सरकार ने योजनाओं की घोषणा भी की, लेकिन वह योजना आज तक धरातल पर नहीं उतर सकी है, जिसके कारण आज भी आदिवासी समुदाय के लोगों की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं हो सकी है.

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2015 में झारखंड में थर्मोकोल प्लेटों की बिक्री पर प्रतिबंध
पाकुड़ जिले के अमड़ापाड़ा, लिट्टीपाड़ा, पाकुड़िया प्रखंड घने जंगलों और पहाड़ों से घिरा हुआ है. इन जंगलों में सखुआ के पेड़ हजारों की संख्या में हैं. जिसके पत्तों को तोड़कर वर्षों से आदिवासी, आदिम जनजाति के लोग प्लेट और कटोरी का निर्माण कर बेचते हैं और अपना जीवन यापन करते हैं. पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों को सामाजिक बदलाव लाने के लिए सरकार ने कई सपने दिखाए और उन सपनों को साकार करने के लिए पहल भी की. 19 मई 2015 को झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने पूरे राज्य में थर्मोकोल प्लेटों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दी और सखुआ के पत्तों से बने प्लेटों को बढ़ावा देने पर बल दिया, जिससे राज्य के गरीब और आदिवासी लोगों के लिए रोजगार मिल सके.

पत्तल बनाती महिलाएं

महिलाओं को दिया गया पत्तल बनाने का प्रशिक्षण

वर्ष 2015 में जिले की सैकड़ों महिलाओं को सखुआ पेड़ के पत्ते से प्लेट बनाने के लिए प्रशिक्षण दिया और मशीन भी उपलब्ध करा दी गई, जिसके बाद पहाड़ों और जंगलों में रहने वाले आदिवासी और आदिम जनजाति समाज के लोगों की आस जगी कि अब उनके भी दिन बदलेंगे, उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी और समाज में अलग पहचान मिलेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि उनके बनाए गए प्लेटों को बेचने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं कराया गया. जिसके कारण आज भी थर्मोकोल से बने प्लेट की ज्यादा बिक्री हो रही है. पत्ता प्लेट निर्माण कार्य से जुड़ी महिलाएं बताती हैं कि उनके बनाए गए पत्ता प्लेट की बिक्री ज्यादा नहीं होने के कारण उसे महज दो हजार रुपये एक महीने में आमदनी हो रही है, जिससे परिवार चलाना मुश्किल है. ये महिलाएं राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जुड़कर अन्य कार्य भी करती हैं, ताकि उनके परिवार का भरण पोषण किसी तरह हो सके.

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आदिवासी समुदाय के जीवनस्तर में नहीं आया कोई खास बदलाव

तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने यह दावा किया था, कि पत्ता प्लेट का निर्माण अब गांव की महिलाएं मशीन से करेंगी और उन पत्तलों को बेचने के लिए बाजार भी मुहैया कराया जाएगा, ताकि उनके जीवन स्तर में बदलाव आएगा. उन्होंने कहा था कि एक समय आएगा जब यह कारोबार बड़ा रूप लेगा और आदिवासी समाज के बच्चे भी नामी गिरामी स्कूलों में पढ़ेंगे, जंगली क्षेत्रों में रहने वाली खासकर महिलाओं का सम्मान और स्वाभिमान बढ़ेगा, लेकिन 6 साल बीतने के बाद भी आज तक आदिवासी समाज के लोगों के जीवनस्तर में कोई खास बदलाव नहीं आया है.

Last Updated : May 13, 2021, 12:20 PM IST

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