लोहरदगा: जिले में लोहार परिवार मौजूदा समय की विकट परिस्थितियों में अपने पारंपरिक व्यवसाय को जीवित रखे हुए हैं. भले ही इस व्यवसाय से उसके लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ना होता हो. परिवार की सुख सुविधाएं ना खरीद पाता हो, लेकिन लोहार परिवार आज भी अपने परिवार की सुख समृद्धि के लिए संघर्ष कर रहा है.
वीडियो में देखिए स्पेशल रिपोर्ट सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए इस समुदाय के लोगों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. सिर्फ लोहरदगा जिले में लगभग इनकी आबादी 2 हजार परिवारों की है. इसके अलावा झारखंड के अलग-अलग जिलों में भी लोहार परिवार के सदस्य रहते हैं. इन परिवारों के पास रोजगार का कोई ठोस आधार नहीं है. सरकार की ओर से आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. हालात ऐसे हैं कि इनका जाति प्रमाण पत्र तक नहीं बन पाता. सरकार की योजनाएं इन तक पहुंच नहीं पा रही.
विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर लोहार समाज की स्थिति को लेकर चिंतन करने की जरूरत महसूस की जा रही है. परंपरागत रूप से अपने व्यवसाय को लेकर संघर्ष करने वाले इस समुदाय के लोग प्रकृति के पूजक हैं. बावजूद इसके आज तक इन्हें कोई अधिकार मिल नहीं पाया है. आधुनिकता की मार सबसे ज्यादा इस समुदाय के लोगों के रोजगार पर पड़ी है. औद्योगिकरण हुआ तो परंपरागत व्यवसाय को सबसे पहले नुकसान पहुंचा. लोहार समाज के लोग लोहे के कृषि उपकरण और दैनिक उपयोग में आने वाले सामान बनाते हैं.
कल-कारखानों में बने कृषि औजार की मांग बढ़ने लगी तो लोहार समाज द्वारा निर्मित औजारों की मांग कम होने लगी. आज तो हालत ऐसे हैं कि हजार-दो हजार रुपए भी इस व्यवसाय से आमदनी कर पाना मुश्किल हो चुका है. इस व्यवसाय के सहारे परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल है. सरकार की ओर से रोजगार को जिंदा रखने को लेकर कोई सहयोग मिल नहीं पाता है.
बलदेव साहू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रोफेसर लोहरा उरांव कहते हैं कि इनके पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह अशिक्षित होना है. सरकार की योजनाएं इन तक पहुंच नहीं पाई है. जागरूकता का अभाव है. सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है. औद्योगिक करण का भी काफी प्रभाव पड़ा है. इन्हें जागरूक होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की जरूरत है. सरकार को भी इनके हालात को लेकर चिंता करने की जरूरत है.