गोड्डा: होली रंगों के त्योहार के रूप में पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. होली के आते ही लोग अबीर-गुलाल और रंगों में सराबोर नजर आते है. लेकिन संथाल के अदिवासी समाज के लोग होली के त्योहार को अलग ही अंदाज में सेलिब्रेट करते है. गोड्डा समेत सभी ग्रामीण इलाकों में आदिवासी होली को बाहा पर्व के रूप में मनाते है. 'बाहा' का अर्थ है फूल. यह देश के संताल, हो, ओरांव, मुंडा और अन्य जनजातियों का पर्व है. बच्चे, पुरुष और स्त्रियां सभी परम्परागत वस्त्र धारण करते हैं. इस अवसर पर मदाल भी बजाया जाता है. इस तरह आदिवासियों का ये परंपरागत त्योहार होली में रंग रहित उमंग उत्साह और उत्लास से भरपूर होता है.
Adivasi Holi: यहां रंंगों से नहीं पानी से खेली जाती है होली, आदिवासियों के बीच इस नाम से है मशहूर - झारखंड आदिवासी होली
आदिवासी अपने अंदाज में होली मनाते हैं. ये रंगों की जगह पानी का इस्तेमाल करते हैं. इस दौरान झारखंड के राजकीय पेड़ साल के फूल की पूजा की परंपरा है. शाम में नाच और गाने का आयोजन होता है.
रंग की जगह एक-दूसरे पर डालते हैं पानीः चैत्र महीना शुरू होने से पहले बाहा पर्व मनाया जाता है. गांव के लोग बैठक कर पूरे कार्यकर्म की रणनीति तैयार करते हैं. उसके बाद अपने ईष्ट के लिए पुवाल का आवास बना कर जाहेर स्थान (पूजा के आयोजन का स्थान) में पूजा-पाठ करते है. जिसमें खासकर महुआ, आम के फूलों का चढ़ावा चढ़ता है. आदिवासी भोग ग्रहण करके जब गांव वापस लौटते हैं. ग्रामीण उनके पैर धोकर उनका स्वागत करते है. उसके बाद शुरू हो जाता है उत्सव. रंग की जगह एक-दूसरे पर पानी डालकर पर्व मनाते है. संध्या में नाच और गाने का आयोजन किया जाता है. ऐसा ही कुछ नजारा झारखंड के संथाल एरिया स्थित गोड्डा में दिखा. यह होली के साथ शुरू होकर तीन दिनों तक चलता है.
बाहा पर्व में साल के फूल की होती है पूजाःबाहा पर्व में मुख्य रूप से साल के फूल व पेड़ की पूजा होती है. लोग अपने ईष्ट को पूजते है. और नए वस्त्र धारण करते है. इस दौरान बड़े छोटो को आशीष देते है. साथ ही नेग भी देते है. आदिवासियों की ये परंपरा काफी पुरानी है. होली के दिन ही इसे मनाया जाता है. बाहा पर्व सादगी पूर्ण होता है. इससे पर्यवारण को भी कोई नुकसान नहीं होता है. सिर्फ पानी के इस्तेमाल से स्वास्थ्य की परेशानियां भी नहीं होती है. जबकि केमिकल युक्त रंग के इस्तेमाल से स्वास्थ्य और त्वचा में परेशानियां होती हैं. यही कारण है कि आज हर्बल रंग और गुलाल के इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है. इस तरह आदिवासियों की ये परंपरा रंग रहित उमंग उत्साह और उत्लास से भरपूर होता है.