जमशेदपुर: जब किन्नरों की बात करते हैं तो आपके मन में विवाह, गृह प्रवेश, बच्चा होने के रश्मों के बाद पुरुषों के जैसे लगने वाले और महिलाओं की तरह कपड़े पहनने वाले शख्स की तस्वीर उभरती है. घर में किसी आयोजन के मौके पर इनका एक समूह ढोल नगाड़े लेकर दस्तक देता है. खुशी के पल में इनका घर आना शुभ माना जाता है. इसी समूह को समाज में किन्नर कहा जाता है. किन्नरों के ऐसे काम के साथ ही इनकी जिंदगी दुख के धागे में लिपटी होती है.
इसे भी पढ़ें- पलामू: मनरेगा आयुक्त ने पथरा गांव का किया भ्रमण, की ग्रामीणों की सराहना
किन्नरों की परेशानी
किन्नर समुदाय का अस्तित्व ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी से है. शास्त्र और पुराणों में भी किन्नरों के बारे में उल्लेख किया गया है. किन्नरों को आजादी के सात दशक के बाद भी अपनी पहचान के लिए मोहताज होना पड़ता है. बर्मा माइंस के जेम्को बस्ती स्थित महानंद कॉलोनी की रहने वाली संजना बताती है कि दस वर्ष की उम्र से ही अपने घर को छोड़कर किन्नरों के साथ रहने जमशेदपुर आ गई थी, संजना दसवीं पास है और उनके पिता सरकारी मुलाजिम थे.
शहर में किराये का घर लेने के लिए इन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती है. आस-पड़ोस और बस्ती के रहने वाले लोग किन्नरों पर अभद्र टिप्पणी करते हैं. सभ्य समाज के लोग भी इनसे बात करने और इनकी शारीरिक बनावट पर मजाक उड़ाते हैं. कई वर्षों तक पहचान पत्र के नहीं बनाए जाने के कारण बाजार से सिम कार्ड नहीं दिया जाता था. किराये पर रहने के लिए कोई पहचान पत्र नहीं होता था. सर पर छत नहीं होने के कारण कभी किसी होटल के नीचे, तो कभी सुनसान सड़कों पर रातें गुजारनी पड़ती थी.