पुर्वी सिंहभुम: जिले में मुख्य रुप से निवास करने वाले भूमिज आदिवासी सिंगबोंगा यानी सूर्य के उपासक होते हैं. झारखंड के अलावा ये ओडिशा, पश्चिम बंगाल, असम में सघन रूप से और त्रिपुरा, बिहार, अरुणाचल प्रदेश, अंडमान निकोबार, दिल्ली, महाराष्ट्र और बांग्लादेश में बहुत कम संख्या में निवास करते हैं. 2001 की जनगणना के अनुसार अकेले झारखंड में इनकी आबादी करीब 2 लाख है, जबकि पूरे देश में इनकी आबादी 11 लाख है.
प्रकृति प्रेम की अनूठी मिसाल
भूमिज शब्द का अर्थ है भूमि से जुड़ा. कहते हैं इनका यह नाम इनके बसने के तरीके के कारण पड़ा है. इनके बसने का तरीका यह था कि एक दिशा में तीर छोड़ा दिया जाता, फिर कुछ ग्रामीण उसे ढूंढने निकलते, अगर वह तीर जमीन पर पड़ा मिलता तो भूमिज वहां नहीं बसते. ये लोग वहीं बस्ते थे जहां पर तीर किसी पेड़ से चुभा मिले. इनके मुताबिक इस तरह प्रकृति यह संकेत देती है कि उन्हें कहां बसना चाहिए.
तीर-धनुष से अनोखा है रिश्ता
पुराने समय में यह जनजाति पशु-पक्षियों का शिकार कर जीवनयापन करते थे. ऐसे में तीर-धनुष से इनका रिश्ता अनोखा माना जाता है. वर्तमान में भी ये लोग अपने घरों में तीर-धनुष रखते हैं. इतना ही नहीं किसी बच्चे के जन्म लेने के बाद ये नाड़ी तीर से ही काटते हैं.
कैसी है इनकी सभ्यता-संस्कृति
इतिहासकारों का कहना है कि भूमिज समाज की सभ्यता सिंधु घाटी के सभ्यता से पहले की है. अन्य जनजातियों की तरह भूमिज जनजाति के लोग भी प्रकृति के पुजारी होते हैं. इनकी संस्कृति-सभ्यता मुंडा, उरांव आदि जनजातियों से काफी मिलती है हालांकि इनपर हिंदू धर्म का प्रभाव विशेष रूप से है.
घर के सामने गाड़ते हैं पत्थर
भूमिज जनजाति के लोग अपने पूर्वजों की अस्थियों को घर के सामने दरवाजे पर गाड़ते हैं. उसे सासिंदरी कहा जाता है. इसके अलावा एक खड़े पत्थर पर मृतक के बारे में जानकारी लिखी जाती है. जिसे निशानदिरी कहा जाता है. मकर सक्रांति के दिन चादर ओढ़ाकर, इसकी पूजा भी की जाती है.