दुमकाः प्रतिवर्ष 30 जून को हूल दिवस का आयोजन होता है. हूल शब्द का अर्थ क्रांति है. 30 जून को 1855 को तत्कालीन शासन व्यवस्था और महाजनों के शोषण के विरुद्ध साहिबगंज के भोगनाडीह गांव से सिदो कान्हू के नेतृत्व (Martyr Sido Kanhu) में संथाल हूल (क्रांति) की शुरुआत हुई थी. जिसका आने वाले दिनों में व्यापक असर देखा गया. नौ महीने तक संथाल हूल क्रांति चली थी. इसको लेकर अंग्रेजों ने व्यवस्था मजबूत करने के लिए संथाल परगना को अलग जिला बनाया और कई विशेष कानून बनाए गए.
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संथाल हूल भले ही आर्थिक दोहन और महाजनी के विरोध से शुरू हुई थी पर इसकी आग ने ब्रिटिश हुकूमत के नाक में दम कर दिया था. 30 जून 1855 को दो भाइयों सिदो-कान्हू के नेतृत्व में साहिबगंज में बरहेट के पास भोगनाडीह से 10 हजार आदिवासियों ने विद्रोह का बिगुल फूंका, जो नौ महीने तक धधकता रहा. कहा जाता है कि इसमें तीस से पचास हजार लोग कूद पड़े थे. संथालों ने जनमानस को परतंत्रता की बेड़ी से मुक्त कराने के लिए अपने हूल को विदेशी (अंग्रेजों) और स्वदेशी (महाजनों) दोनों दुश्मनों के खिलाफ खड़ा किया था. आज का संथाल परगना क्षेत्र संथाल हूल का प्रतिफल है. जिसे केवल संथालों ने ही नहीं बल्कि गैर संथालों में कई जाति-समुदाय ने भाग लिया था, इसमें महिलाएं भी बड़ी तादाद में शामिल हुई थीं. इन महिलाओं का नेतृत्व सिदो कान्हू की बहन फूलो और झानो ने किया था. यहां तक कि इस क्रांति में किशोरियों की भी संख्या काफी थी.
उत्पीड़न के शिकार लोगों के दिलों में धधक रही चिंगारी ही बन गया हूलः उस वक्त जमींदार और महाजन मेहनतकश संथालों का खूब उत्पीड़न करते थे, उनसे जबरन वसूली की जाती थी. उधार ना चुकाने पर संपत्ति पर दखल कर लिया जाता था, बंधुआ मजदूरी करायी जाती थी. अंग्रेजों से सांठगांठ रखने वाले इन जमीनदारों-महाजनों का ऐसा सलूक इस संथाल परगना के अलावा से सीमावर्ती और आसपास के इलाके बीरभूम, बांकुड़ा, भागलपुर के पूर्वी क्षेत्र इलाके में आम बात थी, यही संथाल हूल की वजह बनीं. इसके विरोध में ही 30 जून 1855 की बैठक हुई थी और क्रांति का ऐलान हुआ था, जिसमें सभी क्षेत्र से लोग इकट्ठा हुए थे.
दारोगा महेश लाल की कर दी गई थी हत्याः इस दौरान 7 जुलाई 1855 को अंग्रेजी शासन का दारोगा महेशलाल डकैती के झूठे आरोप में सिदो-कान्हू को गिरफ्तार करने पहुंचा था. क्रांतिकारी उनपर टूट पड़े और दारोगा महेशलाल दत्त के साथ आए एक अन्य दारोगा प्रताप नारायण को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इस वाकये के बाद 16 जुलाई 1855 को पीरपैंती पियालपुर में आंंदोलनकारियों ने सार्जेंद्र मेजर सहित 25 अन्य को भी अपने तीर से निशाना बनाया था. इसके बाद तो जब ब्रितानी हुकुमत ने इन्हें घेरने की कोशिश की तो इन सेनानियों ने राम मांझी, शाम, फुदुन के साथ बीरभूम की ओर 6 अगस्त 1855 को लगभग 3000 विद्रोहियों के साथ कूच कर गए.