रांची: दुमका में 3 नवंबर को उपचुनाव होना है. एक तरफ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है तो दूसरी तरफ झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री और भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी की. हेमंत सोरेन पर दबाव ज्यादा है. उन्हें अपने छोटे भाई बसंत सोरेन को राजनीति में स्थापित करना है.
वहीं, 2019 के चुनाव के बाद भाजपा में आए बाबूलाल मरांडी, लुईस मरांडी को जीताकर पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में हैं . लिहाजा, राज्य के दोनों बड़े नेताओं ने दुमका में डेरा डाल रखा है. अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व इस सीट पर हार-जीत का फैसला संथाली समाज करता है. संथालियों की आबादी करीब 43 प्रतिशत है. 2 प्रतिशत आबादी आदिम जनजाति पहाड़िया की है. चूकि दोनों प्रमुख दलों के प्रत्याशी भी संथाली समाज से आते हैं इसलिए चुनाव प्रचार में संथाली भाषा का चलन बढ़ गया है.
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आअ् सार दा आबू रेन, आबू रेन की गूंज
यह नारा झामुमो का है. इसका मतलब है - तीर-धनुष हमारा है, हमारा है. संथालियों के बीच पहुंचते ही झामुमो के नेता नारा लगाते हुए कहते हैं- आअ् सार दा ओको रेन ( मतलब - तीर-धनुष किसका है). जवाब में लोग कहते हैं - आअ् सार दा आबू रेन, आबू रेन (मतलब - तीर धनुष हमारा है, हमारा है). दरअसल, झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन के लिए दुमका की धरती उनकी कर्मभूमि रही है. यहां उन्होंने महाजनों के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था. तब तीर धनुष का खूब इस्तेमाल हुआ. वैसे भी तीर धनुष आदिवासी समाज का पारंपरिक हथियार रहा है. इसके प्रति उनकी आस्था जुड़ी होती है. चुनाव के वक्त इस चिन्ह की अहमियत बढ़ जाती है और उम्मीदवार गौण हो जाता है. लिहाजा, झामुमो के तमाम नेता अपने चुनाव चिन्ह पर फोकस कर रहे हैं.