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झारखंड की पहचान असुर जनजाति के अधूरे हैं अरमान, दुनिया को सिखाया लोहा गलाने का ज्ञान

असुर जनजाति जिसने दुनिया को लोहा गलाने का ज्ञान दिया. इसी ज्ञान से सालों बाद स्टील बना और इंसान ने विकास के नए युग में छलांग लगाई. झारखंड में असुर मुख्य रूप से गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार में निवास करते हैं.

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Published : Aug 9, 2019, 7:20 AM IST

Updated : Aug 9, 2019, 6:51 PM IST

लोहरदगा: असुर भारत का एक प्राचीन आदिवासी समुदाय है. झारखंड में असुर मुख्य रूप से गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार जिलों में निवास करते हैं. ये वहीं असुर आदिम आदिवासी समुदाय है जिसने दुनिया को लोहा गलाने का ज्ञान दिया. इसी ज्ञान से सालों बाद स्टील बना और इंसानी समाज ने विकास के नए युग में छलांग लगाई.

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असुर मूर्तिपूजा नहीं करते हैं. इनका जीवन-दर्शन प्रकृति आधारित होता है. असुर जनजाति के तीन उपवर्ग हैं- बीर असुर, विरजिया असुर और अगरिया असुर.


बीर असुर
सामान्य तौर पर बीर असुरों को असुर जनजाति कहा जाता है. लोग सिर्फ इसी समुदाय को ही असुर जनजाति समझते हैं, जबकि बीर असुर के अलावा विरजिया और अगरिया असुर भी असुर जनजाति से हैं. बीर शब्द असुरी और मुंडारी भाषा में जंगल से संबंधित है, जिसका अर्थ है शक्तिशाली जंगल वासी. बीर असुर में 12 गोत्र होते हैं. बीर असुर विजातीय विवाह करते हैं. जिस वस्तु या प्राणी विशेष से गोत्र के नाम दिए जाते हैं, उनसे वह समूह दूरी रखते हैं. ऐसा माना जाता है कि इसका उल्लंघन किये जाने पर वे दुर्भाग्यशाली हो जायेंगे.


विरजिया
एक अलग आदिम जनजाति के रूप में अधिसूचित है. यह मुख्यतः झारखंड में ही निवास करते हैं. विरजिया असुर भी लौह उत्पादन करते थे, लेकिन 1950 में बने लौह संरक्षण कानून ने इनसे लौह उत्पादन के कारोबार को छीन लिया. इनके बारे में कहा जाता है कि ये मध्य प्रदेश से आकर यहां बसे हैं. इनकी दो शाखाएं तेलिया और सिंदुरिया है. इनकी अपनी भाषा बिरजिया है. इनमें बहुविवाह प्रचलित है. विरजिया असुर का पेशा और पर्व बीर असुर से काफी मिलता-जुलता है.


अगरिया जनजाति
इनके प्रमुख देवता लोहासुर है. जिनका निवास धधकती हुई भट्टियों में माना जाता है. ये लोग अपने देवता को काली मुर्गी का भेंट चढ़ाते हैं. इस जनजाति के लोग मार्गशीर्ष महीने में दशहरे के दिन और फाल्गुन महीने में लोहा गलाने में सभी यंत्रों की पूजा करते हैं. इनका भोजन मोटे अनाज और सभी प्रकार का मांस है.


असुरी भाषा है प्रमुख
झारखंड में असुरों की जनसंख्या 7,783 है. आदिम जनजाति असुर की भाषा मुंडारी वर्ग की है जो आग्नेय (आस्ट्रो एशियाटिक) भाषा परिवार से संबद्ध है. परन्तु असुर जनजाति ने अपनी भाषा की असुरी भाषा की संज्ञा दिया है. अपनी भाषा के अलावे ये नागपुरी भाषा और हिंदी का भी प्रयोग करते हैं.


सरकार की तरफ से कई योजना
लोहरदगा जिले में अभी आदिम जनजातियों की आबादी महज 600 है. इनकी आबादी को बढ़ाने को लेकर सरकार की ओर से विशेष प्रावधान किए गए हैं. बंध्याकरण और नसबंदी जैसे कार्यक्रम इनके लिए लागू नहीं होते, सरकार की योजनाएं इन्हें सहजता से उपलब्ध करानी है. इसके अलावे आदिम जनजातियों को जन वितरण प्रणाली योजना का लाभ भी उनके घर तक पहुंचा कर देना है.


नहीं मिल रहा सरकारी लाभ
इसके बावजूद उर्रु चटकपुर गांव में जो तस्वीर देखने को मिली वह बताने के लिए काफी है कि सरकार की योजनाएं आदिम जनजातियों तक पहुंच ही नहीं पा रही. इन्हें राशन लाने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का लाभ भी नहीं मिल पा रहा. प्रधानमंत्री आवास योजना से भी यह अभी तक वंचित हैं. रोजगार का घोर अभाव है.


असुर जनजाति परिवार के ज्यादातर सदस्य निरक्षर हैं. आज भी पारंपरिक रूप से लोहे के औजार बनाना इनका मुख्य पेशा है. खेती के नाम पर मक्के की खेती यह प्रमुखता से करते हैं. सरकार की योजनाएं नहीं पहुंच पाने से आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कोई बदलाव नहीं हो पा रहा है.

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झारखंड में रह रहे असुर समुदाय के लोग काफी परेशानियों का सामना कर रहे हैं. समुचित स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, परिवहन, पीने का पानी आदि जैसी मूलभूत सुविधाएं भी इन्हें उपलब्ध नहीं है. लोहा गलाने और बनाने की परंपरागत आजीविका के खात्मे और खदानों के कारण तेजी से घटते कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ने असुरों को गरीबी के कगार पर ला खड़ा किया है.

Last Updated : Aug 9, 2019, 6:51 PM IST

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