रांची: झारखंड में निर्वाचन आयोग द्वारा भेजी गई चिट्ठी (Report of ECI on hemant soren office of profit) के बाद जिस तरीके के राजनीतिक हालात बने हैं उसमें एक बात की चर्चा जोरों पर है कि झारखंड में अब मन वाली राजनीति हो रही है. राजभवन विधि विभाग के परामर्श को लेकर के अभी तक आयोग को पत्र नहीं भेजा है, क्योंकि यहां राजभवन का मन है और यही स्थिति सरकार में भी है, कि कब झारखंड में हेमंत सोरेन के साथ चल रही सरकार के विधायक रिसोर्ट भ्रमण करने के लिए जाएंगे, कब रायपुर चले जाएंगे, कब सरकार अपने आप बहुमत साबित कर देगी और बगैर कुछ बताएं सीएम हेमंत सोरेन राज्यपाल से मुलाकात करके कब दिल्ली चले जाएंगे. यह सब कुछ अपने अपने मन के अनुसार चल रहा है.
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1932 के खतियान आधारित स्थानीय नीति को लागू करने के बाद जिस तरीके से कांग्रेस पार्टी में कई नेता विरोध को लेकर मुखर हुए हैं, उससे एक बात तो साफ है कि इस स्थानीय नीति को लागू करने से पहले हेमंत सोरेन ने इसकी चर्चा नहीं की थी. कांग्रेस में जिस तरीके का विभेद दिखा है उससे भी यह बातें साफ तौर पर झलक रहा है कि बहुत कुछ भरोसे में लेकर नहीं किया गया है. अब यह सवाल सियासी हो गया कि आखिर इस मनमानी के करने की वजह क्या है, कांग्रेस के कई नेता इस मामले पर बहुत ज्यादा नाराज हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा में जिनकी नाराजगी है वह बता इसलिए नहीं पा रहे हैं कहीं पार्टी उन पर कार्रवाई न कर दें, लेकिन मन में सबके इस बात का डर तो बैठा ही हुआ है कि मन से करने वाली राजनीति का परिणाम में कहीं जनता ने मन से जवाब नहीं दिया तो अगली बार जीत के लाले पड़ जाएंगे.
झारखंड में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के सहयोग के साथ भले ही झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार चल रही है, लेकिन हेमंत सोरेन वही करते हैं जो उनके मन में होता है. हालांकि यह विरोध और विभेद एक बार नहीं कई बार सामने आया है. जब झारखंड में हुए उप चुनाव में सीटों के तालमेल को लेकर के कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा में विवाद हो गया था, लेकिन फिर मामला सुलझ गया. सरकार गठन के लिए जब हेमंत सोरेन को कांग्रेस ने समर्थन दिया था, तब कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के लिए कमेटी गठित करने की बात कही गई थी. लेकिन उसका भी गठन 2 साल सरकार चल जाने के बाद हुआ.
राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव में भी हेमंत सोरेन कांग्रेस के साझा उम्मीदवार को समर्थन न देकर के द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया था जो भाजपा की उम्मीदवार थीं. यहां भी कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा में विभेद साफ-साफ दिखा था, क्योंकि राष्ट्रपति के मुद्दे पर झारखंड मुक्ति मोर्चा अपने ही गठबंधन के साथियों से बिल्कुल अलग जाकर के मतदान किया था. कांग्रेस ने अपने साझा उम्मीदवार के तौर पर यशवंत सिन्हा को मैदान में उतारा था और यह तय हुआ था कि जो लोग भी भाजपा के विपक्ष में है वह लोग यशवंत सिन्हा को ही मतदान करेंगे. लेकिन कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के साथ सरकार बनाने के बाद भी हेमंत सोरेन ने राष्ट्रपति के चुनाव में द्रौपदी मुर्मू को ही अपना समर्थन दिया. हालांकि कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के विरोध में थे और वह कांग्रेस के साथ खड़े हो कर के अपना समर्थन कांग्रेस के पक्ष में ही दिया था.
अब एक बार फिर 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण और 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति को जिस तरीके से हेमंत सरकार ने लागू किया है. उसके बाद चर्चा इस बात की शुरू हो गई है कि किसको किसकी शह है और समर्थन किसका लिया गया, क्योंकि जिस राजनीति को हेमंत हवा देने जा रहे हैं वह कांग्रेस के समर्थन का नहीं है और राष्ट्रीय जनता दल उसमें कहीं साथ टिकता नहीं है. ऐसे में झारखंड की सियासत में एक नया दौर मन वाला जरूर शुरू हुआ है. जिसमें कई राजनीतिक दलों की वोट वाली प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है. भले ही वह अपनी ही सरकार की नीतियों से सवालों के घेरे में हैं. अब देखना यह होगा अपनी सरकार की नीतियां उनके लिए कितनी कारगर होती हैं या फिर कितनी घातक.