रांचीः दिशोम गुरु की चर्चा के बिना झारखंड की राजनीतिक बहस पूरी नहीं हो सकती. शिबू सोरेन को आदिवासियों के बड़े नेता के रूप में जाना जाता है. जेएमएम के दिग्गज नेता शिबू सोरेन ने अलग झारखंड के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी. वे तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाल चुके हैं लेकिन कभी भी उनकी सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी.
शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर विधानसभा चुनाव 2005 में झारखंड की 30 सीटों पर कमल खिला. वहीं 17 सीटें जेएमएम, 9 कांग्रेस , 7 आजेडी, 6 जेडीयू और 12 सीटों पर अन्य ने जीत दर्ज की. एनडीए ने बीजेपी और जेडीयू को मिलाकर 36 सीटों के अलावा 5 निर्दलीय विधायकों का समर्थन होने का दावा पेश किया, लेकिन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने यूपीए के शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्योता भेजा. हालांकि शिबू सोरेन विश्वास मत के लिए जरूरी विधायकों की संख्या को नहीं हासिल कर सके और 10 दिन बाद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
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झारखंड में पहली बार राष्ट्रपति शासन
इसके बाद अर्जुन मुंडा की सरकार बनी लेकिन वो भी निर्दलीय विधायकों के पाला बदलने के कारण बहुत दिनों तक टिक न सकी. यूपीए की शह पर निर्दलीय विधायकों ने मुंडा सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इसके बाद मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बनाए गए. इस वक्त तक शिबू सोरेन और जेएमएम की महत्वकांक्षाएं कम नहीं हुई थीं, लिहाजा दो साल बाद एक बार फिर तख्ता पलट हुआ और शिबू सोरेन को गद्दी सौंप दी गई. सांसद रहते हुए शिबू सोरेन सीएम की गद्दी पर बैठे थे लेकिन एक परीक्षा अब भी पास करना बाकी था. झटका तब लगा जब वे 8 जनवरी को तमाड़ विधानसभा उपचुनाव हार गए. नतीजतन झारखंड में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा.
राज्य में राष्ट्रपति शासन के दौरान तीसरी विधानसभा के लिए चुनाव के बाद फिर त्रिशंकु विधानसभा बनी. इस चुनाव में भी जनता साफ फैसला नहीं ले सकी और किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला. कुछ साफ तो बस यही कि इस बार भी कुर्सी के लिए राजनीतिक उठापटक जारी रहेगी. एक बार फिर शिबू सोरेन के नेतृत्व में सरकार का गठन किया गया, जिसे बीजेपी, आजसू और जदयू ने समर्थन दिया. इस चुनाव में जेवीएम के 11 विधायक चुनकर आए और बाबूलाल मरांडी किंगमेकर की भूमिका में दिखने लगे.
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दूसरी बार राष्ट्रपति शासन
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ में जन्मे शिबू सोरेन, पिता की हत्या हो जाने के बाद लकड़ी बेचा करते थे. 1970 के दशक में उन्होंने आदिवासियों के नेता के तौर पर राजनीतिक सफर की शुरुआत की. अलग झारखंड और आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी. आदिवासियों के बीच पैठ बनी तो 1977 में शिबू सोरेन ने पहला लोकसभा चुनाव लड़ा, जिसे वे हार गए. हालांकि अगले चुनाव में जीत हासिल कर उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. शिबू सोरेन तीन बार मुख्यमंत्री बनाए गए. पहले 2 मार्च से 12 मार्च 2005 तक 10 दिनों के लिए, दूसरी बार 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 तक 144 दिनों के लिए और तीसरी बार 30 दिसंबर 2009 से 31 मई 2010 तक 152 दिनों के लिए सीएम पद पर रहे. शिबू तीसरी बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. केंद्र की यूपीए सरकार के समर्थन में वोट करने की वजह से बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया. शिबू सोरेन को सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी और कोई भी दल सरकार गठन के लिए आगे नहीं आया, लिहाजा राज्य में दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.
शिबू सोरेन का विवादों से भी काफी नाता रहा है. यूपीए सरकार में कोयला मंत्री रहने के दौरान वो अपने सचिव शशि नाथ झा की हत्या और चिरुडीह केस में 10 लोगों की हत्या के मुख्य आरोपी थे. शिबू सोरेन का सियासी सफरनामा तो काफी लंबा, रोचक और उतार-चढ़ाव भरा है. फिलहाल अगली कड़ी में हम बात करेंगे एक ऐसे नेता की जो निर्दलीय होते हुए भी मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं और फिर उन्हें जेल भी जाना पड़ता है.