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झारखंड कांग्रेस की कसक, कब पूरा होगा सपना

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Published : Nov 21, 2020, 4:38 PM IST

Updated : Nov 22, 2020, 5:27 PM IST

नए राज्य के गठन के 20 साल बाद भी झारखंड कांग्रेस अपना मुकाम हासिल नहीं कर पा रही है. हर बार नए पार्टनर के साथ चुनावी मैदान में उतरने वाली कांग्रेस आखिर क्यों बैशाखी बनकर रह गई है? कांग्रेस के अंदर खींचतान कब खत्म होगी और आखिर कब एक करिश्माई चेहरे की तलाश पूरी हो पाएगी?

performance of congress in jharkhand
performance of congress in jharkhand

रांचीः झारखंड में कांग्रेस अब तक अपनी जमीन नहीं तलाश पा रही है. राज्य में अब तक 4 विधानसभा चुनाव हुए हैं लेकिन कभी भी कांग्रेस को सत्ता की कमान नहीं मिली. हालांकि कांग्रेस बैशाखी बनकर दूसरे दलों के जरिए सत्ता के करीब जरूर रही है. राज्य में हुए पहले लोकसभा चुनाव के अलावा बाकी के तीन लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस का परफॉर्मेंस खराब रहा है. गौर करने वाली बात ये भी है कि अलग राज्य बनने के बाद हर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टनर बदलती रही है. इसके साथ ही प्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं.

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राजनीतिक मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार मधुकर ने ईटीवी भारत को कहा कि सुबोध कांत मानते हैं कि हमारे इतना बड़ा कोई नेता नहीं है लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि जनता के बीच उनका कितना एक्सेप्टेंस है. सुखदेव भगत को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो वह बीडीओगिरी से ऊपर नहीं उठे. रामेश्वर उरांव आईपीएसगिरी से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं. मास बेस बनाने के लिए पार्टी को आंदोलन करना होगा. हीरे को परखने का काम जौहरी करता है और जौहरी को ढूंढना होगा. इस पार्टी में आंतरिक कलह इसलिए है कि कोई अपने आप को कमतर आंकने को तैयार नहीं है.

कब किसके साथ गठबंधन

चुनावों में कैसा रहा परफॉर्मेंस

झारखंड में कांग्रेस के जनाधार को समझने के लिए चुनाव आयोग के आंकड़े पर नजर डालते हैं. झारखंड में पहला विधानसभा चुनाव 2005 में हुआ था. तब कांग्रेस पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन कर मैदान में उतरी थी. हालांकि कांग्रेस के 41 में से सिर्फ 9 उम्मीदवार ही जीत सके और 13 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. इस चुनाव में कांग्रेस को 12.05 फीसदी वोट मिले. इसके बाद के चुनाव में कांग्रेस ने झारखंड विकास मोर्चा के साथ गठजोड़ किया और 61 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए. 2009 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 14 उम्मीदवार जीते और 22 की जमानत जब्त हो गई. हालांकि कांग्रेस का जनाधार 4 फीसदी बढ़ कर 16.16 हो गया. 2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर अपना पार्टनर बदल लिया. इस बार कांग्रेस, राजद और जदयू का मोर्चा बना. कांग्रेस ने 62 सीटों पर उम्मीदवारे उतारे लेकिन सिर्फ 6 सीटों पर जीत मिली और 42 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. वोट फीसदी भी लुढ़क कर 10.46 तक पहुंच गया. गठबंधन ये समीकरण फेल हुआ तो कांग्रेस ने झामुमो और राजद को एकजुट किया. 2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 31 सीटों पर लड़ी और अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन करते हुए 16 सीटों पर जीत हासिल की. जनाधार भी थोड़ बढ़ा और 13.88 फीसदी पर पहुंच गया.

विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुबोधकांत सहाय बताते हैं कि राज्य में शुरू से ही गठबंधन की राजनीति रही है. भाजपा को भी गठबंधन करना पड़ा, तब उनकी गिनती पूरी हुई. चाहे बाबूलाल मरांडी विपक्ष में रहे या शिबू सोरेन. हमारी वैचारिक सोच है कि भाजपा एक सांप्रदायिक विचारधारा से जुड़ी पार्टी है इसलिए वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए हमने बहुत सारे प्रयास किए.

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लोकसभा चुनावों में झटका

इसी तरह पंद्रह नवंबर 2000 को अलग राज्य बनने के बाद 2004 में झारखंड ने लोक सभा का पहला चुनाव देखा. उस समय केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार थी लेकिन सत्ता में रहते हुए भी भाजपा का तगड़ा झटका लगा और कांग्रेस के सभी 6 उम्मीदवार चुनाव जीत गए. हालांकि इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से सिर्फ सुबोधकांत सहाय अपनी सीट जीत सके. 2014 में मोदी की लहर में कांग्रेस पूरी तरह साफ हो गई. 2019 में भी कांग्रेस के 7 में से सिर्फ एक उम्मीदवार गीता कोड़ा को कामयाबी मिली.

कांग्रेस का खोता जनाधार

राज्यसभा में भी कांग्रेस की उपस्थिति कम है. झारखंड से भाजपा के 4, झामुमो का 1 और कांग्रेस का 1 राज्यसभा सदस्य है. कांग्रेस की ऐसी स्थिति के लिए पार्टी के नेता संघ और भाजपा की तथाकथित सांप्रदायिक सोच को जिम्मेदार मानते हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने ईटीवी भारत को बताया कि कांग्रेस के नट बोल्ट को टाइट करने की जरूरत है.

सुबोधकांत सहाय ने ईटीवी भारत को कहा कि ये जरूरी है. ट्रांजिशन पीरियड में पूरी ओवरवायलिंग होती है इसलिए पार्टी के नट बोल्ट को टाइट करना जरूरी है. उन्होंने भाजपा पर आरोप लगाते हुए कहा कि वो तो हिटलरी वाला है. जैसे यहूदियों के खिलाफ जर्मनी में हिटलर ने किया, वैसे यहां मुसलमानों के खिलाफ राजनीति हो रही है. हम वो काम नहीं करेंगे.

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करिश्माई चेहरे की कमी

जानकारों की मानें तो पहले कांग्रेस में कुछ बड़े नेताओं की बड़ी स्वीकार्यता थी लेकिन बाद के दिनों में ऐसे करिश्माई नेता गायब होते गए. आलाकमान को यह लगने लगा कि राज्य स्तर पर जनाधार बनाने वाले नेताओं का कद छोटा नहीं किया गया तो शक्ति का विकेंद्रीकरण हो जाएगा. दिक्कत इस बात की है कि कांग्रेस में जैसे ही कोई एमपी, एमएलए बनता है तो वह यह मान बैठता है कि उससे बड़ा कोई नेता है ही नहीं. एक दौर था जब पार्टी स्तर पर सामाजिक, आर्थिक मुद्दों पर चर्चा होती थी लेकिन यह व्यवस्था बंद हो गई. इसके अलावा आंतरिक कलह और पार्टी छोड़ चुके नेताओं की वापसी में रोड़े अटकाने जैसी वजह भी कांग्रेस को हाशिये पर धकेल रही है.

मधुकर के अनुसार सामाजिक स्वीकार्यता वाले नेताओं से आलाकमान को लगा कि वे नुकसान कर सकते हैं, लिहाजा उनको किनारे कर दिया गया. धीरे-धीरे स्थिति ऐसी हुई की मास बेस वाला कोई नेता नहीं बचा. आंतरिक कलह की वजह है मैं तुमसे कम नहीं, मैं तुमसे बड़ा हूं. वहीं सुबोधकांत सहाय के मुताबिक नेतृत्व क्या होता है, सामूहिकता का ही नेतृत्व होता है. नेहरू-गांधी परिवार नेतृत्वता से ऊपर हैं. लोगों को विश्वास होता है कि वहां से न्याय मिलेगा, वो कभी पक्ष नहीं होते. कांग्रेस 133 साल पुरानी हो चुकी है इसकी वजह है कि नेहरू-गांधी परिवार कभी पक्ष नहीं होता.

छह दशक से ज्यादा समय तक देश की सत्ता की बागडोर संभालने वाली कांग्रेस की साख समय के साथ कम होने लगी है. झारखंड में इसकी स्थिति अब पिछलग्गू पार्टी की तरह हो गई है. ये बात भी दीगर है कि कमरे में बैठकर बात करने से जनता के बीच पैठ नहीं बनती. जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करना होगा. कांग्रेस को अपनी जड़ें फिर से मजबूत करने की जरूरत है क्योंकि लोकतंत्र के लिए विपक्ष की मजबूती भी अनिवार्य है.

Last Updated : Nov 22, 2020, 5:27 PM IST

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