रांची: बुलेट पर बैलेट भारी. एक दौर था जब चुनाव के वक्त इन चार शब्दों का खूब इस्तेमाल होता था. हालांकि, बैलेट से चुनाव कराने में पैसे के साथ-साथ समय की भी बर्बादी उठानी पड़ती थी. बैलेट के विकल्प के रूप में आए ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को भी विवादों का सामना करना पड़ा.
2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद तो यहां तक कहा गया कि ईवीएम में छेड़छाड़ की वजह से ही बीजेपी की जीत हुई है, लेकिन कोई इस बात को प्रमाणित नहीं कर पाया कि ईवीएम में कैसे छेड़छाड़ हो सकता है. कम खर्च और कम समय में चुनावी प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ईवीएम को लंबा सफर तय करना पड़ा है.
झारखंड के वोटरों का ईवीएम से वास्ता साल 2004 में हुआ. लोकसभा चुनाव के दौरान ईवीएम के जरिए अपने मताधिकार की ताकत महसूस की, लेकिन वोट प्रतिशत के मामले में बिहार से पीछे रहा था झारखंड. बिहार में 58.02 प्रतिशत वोटिंग हुई, जबकि झारखंड में 55.69 प्रतिशत. उस चुनाव में सबसे ज्यादा 91.77 प्रतिशत वोटिंग नागालैंड में हुई थी. इसके बावजूद ईवीएम को भारत की चुनावी प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा बनने के लिए लंबा सफर तय करना पड़ा.
सबसे पहले केरल में हुआ था ईवीएम का इस्तेमाल
आजादी के बाद पहली बार 1982 में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था. केरल के परावुर विधानसभा के 50 मतदान केंद्रों पर, लेकिन पहली परीक्षा में ही ईवीएम को विवादों से गुजरना पड़ा. चुनाव हारने वाले प्रत्याशी एसी जोस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बैलेट के जरिए दोबारा चुनाव कराने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट का तर्क था कि तब तक ईवीएम का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, जब तक इसको लेकर स्पष्ट कानून नहीं बन जाता. ईवीएम को कानूनी पहचान मिली साल 1988 मे जब रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट 1951 में सेक्शन 61ए को जोड़ा गया. इसके बाद नवंबर 1998 में मध्यप्रदेश की पांच, राजस्थान की छह और दिल्ली की छह विधानसभा सीटों के लिए ईवीएम से वोटिंग हुई.
14वीं लोस चुनाव में सशक्त बनकर उभरा ईवीएम
साल 2004 में 14वीं लोकसभा चुनाव में ईवीएम का व्यापक स्तर पर पहली बार इस्तेमाल हुआ. राज्य बनने के बाद झारखंड के वोटरों ने भी पहली बार ईवीएम को देखा. 2004 में ईवीएम ने कम खर्च और समय की बचत कर झारखंड की चुनावी प्रणाली को रफ्तार दे दी. अब भारत में तमाम चुनाव ईवीएम के जरिए ही कराए जा रहे हैं.