रांची:देश के पांच राज्यों में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है. हर गली, चौक-चौराहे पार्टियों के झंडे, बैनर-पोस्टर, कटआउट से भरे पड़े हैं. चाय की रेहड़ी से लेकर चाऊमीन, मोमो और लिट्टी की दुकान पर 'इनकी हार पक्की और उनकी जीत सौ फीसदी' पर चैलेंज लग रहे हैं. दूसरी तरफ सिर झुकाकर चलने वाली आम जनता कॉलर उठाकर सबको सुन रही है. ऐसे ऐसे नेता जी के दर्शन हो रहे हैं जो सपने में भी नहीं आया करते थे. सभी पार्टियों ने अपने धुरंधर नेताओं को चुनावी मैदान में उतार रखा है. तमाम नेता बड़े बड़े वादे कर रहे हैं. लेकिन लोकतंत्र के इस राज्य स्तरीय महापर्व में झारखंड के नेता कहीं गुम हो गये हैं. भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों ने यहां के किसी भी नेता को स्टार प्रचारक की सूची में जगह नहीं दी है. अब सवाल है कि इसकी वजह क्या है.
झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार बैजनाथ मिश्र ने कहा कि सच तो यह है कि झारखंड में स्टार प्रचारक के लायक कोई नेता है ही नहीं. किसी में वो करिश्मा नहीं है कि उनके कहने से कोई वोटिंग करेगा. किसी नेता की उस लायक छवि होती, तब तो पार्टियां बुलातीं. बैजनाथ मिश्र ने कहा कि यहां के नेता पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश तक ही पहुंच रखते हैं. अर्जुन मुंडा सरीखे नेता त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में सुने जा सकते हैं. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर झारखंड के नेताओं की हैसियत है ही नहीं. ये सभी जुगाड़ वाले नेता हैं. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर को तो पूरे झारखंड में ही लोग नहीं पूछ रहे हैं. कई बार विधायक, सांसद और केंद्र में मंत्री रह चुके कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय को तो झारखंड में ही उनकी पार्टी नहीं पूछ रही है. फिर दूसरे राज्यों की बात बेमानी होगी. बैजनाथ मिश्र ने कहा कि नेताओं की पहचान पार्टी से होती है. पार्टियां नेता बनाती हैं, लेकिन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने यहां के किसी भी नेता को मौका नहीं दिया.
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वरिष्ठ पत्रकार मधुकर ने कहा कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के आलाकमान का यहां के किसी भी नेता पर भरोसा नहीं बना. हमेशा एक शंका बनी रहती है कि यहां का नेता कभी भी पार्टी बदल सकता है. यह एक सबसे बड़ा कारण है. दोनों दलों के नेता गुटों में बंटे हुए हैं. यह भी एक कारण है. ओहदा देने में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने कमी नहीं की है. रघुवर दास तो राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. जबकि आशा लकड़ा राष्ट्रीय सचिव हैं. कांग्रेस की दीपिका पांडेय सिंह को उत्तराखंड कांग्रेस का सह प्रभारी बनाया गया है, लेकिन किसी में भी ओरेटर स्किल यानी बोलकर प्रभावित करने वाली क्षमता नहीं है. यहां के नेता तो असेंबली में भी अपनी बात ठीक से नहीं रख पाते हैं. ऐसे में चुनावी राज्यों में इनको क्यों कोई पूछेगा. वरिष्ठ पत्रकार मधुकर ने कहा कि झारखंड में महेंद्र सिंह और इंदर सिंह नामधारी जैसे दो-एक नेताओं का नाम लिया जा सकता है, जो अपने भाषण से लोगों को प्रभावित करने की ताकत रखते थे. अब वो बात यहां के किसी भी नेता में नहीं दिखती है.
पांच राज्यों ने कहां-कहां दिखे झारखंड के कांग्रेसी:हेमंत सोरेन की सरकार में कांग्रेस के चार मंत्री भी हैं. लेकिन इनमें से दो मंत्री यानी आलमगीर आलम और बन्ना गुप्ता को दो-एक दिन के लिए उत्तराखंड भेजा गया. इनसे संगठन का काम लिया गया. इसके अलावा महगामा से कांग्रेस विधायक दीपिका पांडेय सिंह को उत्तराखंड की सह प्रभारी की हैसियत से चुनाव कार्य में लगाया गया है. एक और कांग्रेस के नेता हैं कुमार जयमंगल. इनको मणिपुर में संगठन के काम में लगाया गया. रही बात कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की तो इन्हें किसी भी चुनावी राज्य में पैर रखने तक की जगह नहीं मिली है. शेष बचे मंत्री रामेश्वर उरांव और बादल पत्रलेख. इन दोनों को भी किसी ने नहीं पूछा. दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेता और पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री रहे सुबोधकांत सहाय को भी इस लायक नहीं समझा गया.