रांचीः बदलते समय के साथ-साथ संचार क्रांति जरूर हुई, पर आदिवासी समाज में इनका पारंपरिक संचार माध्यम आज भी जारी है. इन माध्यमों ने आदिवासी समाज को एक सूत्र में पिरोया है. आजादी की लड़ाई से लेकर सांस्कृतिक समावेश में भी आज तक एक साध बांधे रखा है.
जंग-ए-आजादी में नगाड़ा-मांदर बना संचार का माध्यमःजिस दौर में संचार का कोई माध्यम नहीं था, आदिवासी समाज विकास के सोपान पर नहीं था. खेत-खलिहान तक सिमट कर रहने वाला ये समुदाय आखिर जन आंदोलन का नायक कैसे बन गया. यहां के लोगों ने अपनी आदि परंपरा को स्वतंत्रता आंदोलन का हथियार बनाया. अपने लोक वाद्य यंत्रों को संचार का सशक्त माध्यम बनाया. हूल क्रांति में संचार का सबसे सशक्त माध्यम बना नगाड़ा और मांदर.
साहिबगंज के भोगनाडीह गांव से खबर संथाल परगना के अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ बीरभूम, पुरुलिया, हजारीबाग तक पहुंचायी जाती थी. जगह-जगह हुई इस नगाड़े की इस मुनादी के जोर पर ही 30 जून 1855 को भोगनाडीह में करीब 30 हजार लोग एकत्रित हुए थे. जहां से हूल क्रांति के नायक सिदो-कान्हू ने लोगों को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने का संकल्प दिलाया था.
नगाड़े की आवाज लोगों को एकजुट होने का देता था संदेशःमांदर और नगाड़ा, जिसे संथाली में टमाक कहा जाता है. आज भी आदिवासी संथाल बहुल इलाकों में यह परंपरा है कि अगर कहीं नगाड़ा बजता है तो उसका प्रतीक है कि लोगों को उस नियत स्थान तक पहुंचना है और उसका क्या संदेश है उसे जानना है. जब लोग एकजुट हो जाते हैं तो नगाड़ा बजा रहा शख्स बताता है कि समाज के सामने यह समस्या आ गई है और हमें एक निश्चित दिन एकजुट होना है, उस दिन एक सभा का आयोजन होना है.
अगर उस सभा में दूर-दराज के लोगों को भी एकत्रित करना है तो कई जगह नगाड़ा लेकर लोग निकल जाते थे और जगह-जगह बजा कर यह संदेश सुनाते थे कि अमुक तिथि के दिन सभी को एकत्रित होना है, जहां किसी विशेष मुद्दे पर बात होनी है. झारखंड के गांव में ये संचार की ये आदि परंपरा आज भी विद्यमान है. दुमका के गोलपुर गांव में आज भी नगाड़ा बजाकर लोगों को एक जगह एकत्रित किया जाता है. जिसमें ग्राम, समाज के सामने आए मुद्दों पर चर्चा के लिए ग्रामीणों से रायशुमारी करने के लिए उन्हें एक मंच पर आने की अपील की जाती है, ताकि उन मामलों पर आम राय बनाकर उसे अमल में लाया जा सके.
शिबू सोरेन का डुगडुगी आंदोलनःभारत को आजाद हुए कई वर्ष बीत चुके थे. लेकिन रूढ़ीवाद में जकड़ा भारत इन बेड़ियों से मुक्ति चाहता था. साहूकारी, महाजनी, छुआ-छूत समेत ऐसी कई सामाजिक बुराइयां थीं, जो स्वस्थ समाज को दीमक की तरह खोखला कर रही थी. आदिवासी बहुल झारखंड में भी महाजनी प्रथा का काफी प्रकोप था. जो आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन को हथियाने में लगे थे. आजाद भारत में भी उनके खिलाफ भी एक और लड़ाई लड़ी गई थी. लेकिन आजाद भारत में शिबू सोरेन ने महाजनों के खिलाफ डुगडुगी बजाकर एक साथ हल्ला बोल दिया. महाजनी प्रथा, सूदखोरी और शराबबंदी के खिलाफ अभियान 1970 आते शिबू ने इस आंदोलन की कमान अपने हाथों में थाम ली.
धान कटनी आंदोलन की शुरुआतःशिबू सोरेन ने रामगढ़, गिरिडीह, बोकारो और हजारीबाग जैसे इलाकों में महाजनों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया. उस दौरान जमींदार, महाजन समुदाय के लोगों ने छल प्रंपच और जाली तरीकों से आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर रखा था. शिबू सोरेन ने आदिवासियों को जमा किया, मंडली बनाई और सामूहिक ताकत के दम पर खेत से धान की फसल काटने लगे, ये आंदोलन धनकटनी आंदोलन कहलाया.
इस दौरान शिबू सोरेन आदिवासियों को एकजुट करने के लिए डुगडुगी बजाया करते थे. सन 1970 के दौरान ही भारी संख्या पुलिस बल शिबू सोरेन की गिरफ्तारी के लिए आ पहुंचे थे, तभी शिबू सोरेन ने डुगडुगी बजाई, जिसके बाद आदिवासियों का एक बड़ा जत्था वहां पहुंच गया. शिबू सोरेन तुरंत संभल गए और भारी संख्या में आदिवासियों के आने के बाद पुलिस फोर्स को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा. उन दिनों डुगडुगी लोगों को सचेत करने और उन्हें रक्षा के लिए बुलाने का एक बड़ा जरिया था.
मांदर की थाप और सबके हाथ में तीर-कमानःशिबू सोरेन अपने साथियों के साथ टुंडी, पलमा, तोपचांची, डुमरी, बेरमो, पीरटांड में आंदोलन चलाने लगे. अक्टूबर महीने में आदिवासी महिलाएं हंसिया लेकर आती और जमींदारों के खेतों से फसल काटकर ले जातीं. मांदर की थाप पर मुनादी की जाती, खेतों से दूर आदिवासी युवक तीर-कमान लेकर रखवाली करते और महिलाएं फसल काटतीं.
पत्तों के माध्यम से सूचना का आदान-प्रदानःसंचार क्रांति के इस दौर में भी आदिवासी समाज धार्मिक अनुष्ठान, खेलकूद, शादी विवाह में भी आदि सांस्कृति की झलक दिखाई देती है. शिकार की योजना हो गांव समाज में विपत्तियों से निपटने का मामला हो या जगह जमीन से संबंधित विवादों के निपटारे को लेकर बुलाए जाने वाली पंचायतों (मोड़े माझी) में एक दूसरे से संवाद स्थापित करने के लिए सूचना का आदान प्रदान को लेकर अपनी पुरानी परंपराओं का निर्वहन कर रहे हैं.
आज भी आदिवासी समाज अपने पारंपरिक संचार प्रणाली (भरुवा) को तवज्जो देते हैं. आदिवासी समाज संचार क्रांति के इस दौर में भी अपने संवाद की पुरानी व्यवस्था सारजोम सकाम यानी साल के पत्तों का सहारा विशेष परिस्थितियों में लेते हैं. इसके अलावा पर्व-त्योहार, धार्मिक अनुष्ठान जैसे मौकों पर इनका प्रयोग होता है. जिसमें इन पत्तों के माध्यम से उनको निमंत्रण दिया जाता है. पर्व त्यौहार धार्मिक अनुष्ठानों के अलावा विशेष परिस्थितियों में एक-दूसरे से संवाद स्थापित के लिए साल का पत्ता साल यानी सारजोम सकाम का सहारा लेते हैं.
जिसमें उन्हें एक जगह एकत्रित करने के लिए संदेश दिया जाता है. सिदो-कान्हू से लेकर भगवान बिरसा मुंडा तक इस संचार माध्यम का इस्तेमाल स्वतंत्रता आंदोलन में किया करते थे. इसके अलावा जब आदिवासी समाज में किसी भी व्यक्ति या मवेशी के गुम हो जाने पर उल सकाम यानी आम का पत्ता घुमाते हैं. उसका संदेश पाकर समाज के लोग सहभागिता निभाते हुए अमुक व्यक्ति या मवेशी को ढूंढ निकालते हैं. फिर उसी संदेश के माध्यम से उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाया जाता है. अपनी वर्षो पुरानी परंपराओं को आज भी आदिवासी समाज निभा रहे हैं.
आदिवासी संस्कृति- एक परिचयःआदिवासी, इस शब्द का प्रयोग किसी भौगोलिक क्षेत्र के उन निवासियों के लिए किया जाता है, जिनका उस भौगोलिक क्षेत्र से ज्ञात इतिहास में सबसे पुराना संबंध रहा हो. लेकिन संसार के विभिन्न भू-भागों में जहां अलग-अलग धाराओं में अलग-अलग क्षेत्रों से आकर लोग बसे हों उस विशिष्ट भाग के प्राचीनतम या प्राचीन निवासियों के लिए भी इस शब्द का उपयोग किया जाता है. इंडियन, अमरीका के आदिवासी कहलाते हैं और प्राचीन साहित्य में दस्यु, निषाद के रूप में जिन विभिन्न प्रजातियों समूहों का उल्लेख किया गया है. उनके वंशज समसामयिक भारत में आदिवासी माने जाते हैं. आदिवासी के समानार्थी शब्दों में ऐबोरिजिनल, इंडिजिनस, देशज, मूल निवासी, जनजाति, गिरिजन, बर्बर प्रचलित हैं.