पटना: आस्था का महापर्व छठ पूजा की तैयारी में लोग जुट गए हैं. इसको लेकर कई कथाएं प्रचलित है. उनमें एक महाभारत काल से जुड़ी हुई है. यह दुनिया का एकमात्र ऐसा पर्व है जिसमें उगते और डूबते सूर्य की पूजा की जाती है. इस साल छठ की शुरुआत 31 अक्टूबर को नहाय-खाय से हुई है. जबकि समाप्ति 3 नवंबर को सुबह सूर्य के अर्घ्य के साथ होगी. इस पर्व को विधि विधान से मनाने के संदर्भ में आचार्य बृज मोहन मिश्र ने ईटीवी भारत से बातचीत की.
छठ पूजा की परंपरा और विधि विज्ञान के बारे में आचार्य बृज मोहन मिश्र ने बताया कि छठ मूल रूप से सूर्य की उपासना का पर्व है. इस परंपरा की शुरुआत महाभारत काल से हुई है. वनवास के समय पांडवों के सामने हर तरह की समस्याएं होती हैं तब भगवान श्री कृष्ण पांडव से मिलने वन पहुंचते हैं. महाऋषि धौम्य के आश्रम के पास भगवान कृष्ण की मुलाकात पांडवों से होती है जिसमें सूर्य की उपासना की बात की गई है.
तीन दिनों तक चलता है सूर्य का उपासना
ईटीवी भारत से बातचीत में आचार्य बृज मोहन मिश्र आगे बताते हैं कि सूर्य की उपासना मुख्य रूप से तीन दिन मानी गई है. पहले दिन का उपासना अपने शुद्धीकरण से की जाती है. जब तक हम शुद्ध नहीं होंगे तब तक उपासना नहीं मानी गई है, उसके बाद खरना रखा गया है. खरना का अर्थ आत्म शुद्धि कहा गया है. दूसरे दिन से ही पर्व की शुरुआत डूबते हुए सूर्य से किया गया है. हमारे जीवन में जितनी भी तरह की समस्याएं हैं वह डूबते हुए सूर्य उपासना से की जाती है. अंतःकरण शुद्धि के साथ समस्याओं का निराकरण होने लगता है, हम उगने लगते हैं. अपने विचारों में भी परिवर्तन लाते हैं जिससे जीवन का उदय होने लगता है.
भगवान सूर्य ने पांडवों को दिए थे अक्षय पात्र
आगे बातचीत करते हुए आचार्य बृज मोहन मिश्र ने बताया कि जब हमें भूख लगती है इसका निवारण माता ही करती हैं. महाभारत काल में पांडव के वनवास के समय द्रौपदी को भोजन बनाना था. द्रौपदी ने कष्टकारी दिनों में सूर्य की उपासना की है. उनके साथ पांडवों ने भी सूर्य की उपासना की थी. जिससे सूर्य प्रसन्न होकर अक्षय पात्र दिए, इसी पात्र में द्रौपदी भोजन का निर्माण करती थीं. यहीं से सूर्य की उपासना के साथ ही छठ पूजा की शुरुआत हो जाती है.