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बदलते वक्त के साथ बदल रहा चुनाव प्रचार का तरीका, जनसभा और सीधा संवाद अब भी भरोसेमंद

बदलते दौर में चुनाव प्रचार का भी तरीका बदल रहा है. मतपत्रों की जगह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ने ले ली है. राजनीतिक दल अब लाउडस्पीकर के शोर की बजाए सोशल मीडिया के प्रयोग करने में ज्यादा यकीन रखता है.

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Published : Oct 5, 2019, 10:33 AM IST

चुनाव प्रचार

रांची: बदलते वक्त ने लोकतंत्र के महापर्व चुनाव पर भी अपनी छाप छोड़ी है. पिछले कुछ दशकों में न केवल चुनाव के तरीके बदले हैं बल्कि चुनाव प्रचार के अभियान में भी काफी परिवर्तन आया है. एक तरफ जहां मतपत्रों की जगह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ने ले ली. वहीं अलग-अलग पार्टियों ने अपने चुनाव प्रचार का पैटर्न भी बदल दिया है.

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'टू वे कम्युनिकेशन' पर भरोसा
बदले पैटर्न में जहां कार्यकर्ताओं के साथ-साथ टेक्नोलॉजी का प्रभाव देखने को मिल रहा है. वहीं अब लोग 'टू वे कम्युनिकेशन' पर भरोसा करने लगे हैं. आंकड़ों को पलट कर देखें तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाला हर राजनीतिक दल अब लाउडस्पीकर के शोर की बजाए सोशल मीडिया का प्रयोग करने में ज्यादा यकीन रखता है.

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चुनाव प्रचार
झारखंड में सत्तारूढ़ बीजेपी के अलावा उसके सहयोगी आजसू विपक्षी झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस समेत लगभग सभी दल फेसबुक ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे साधन का इस्तेमाल कर अपने चुनाव प्रचार के अभियान को धार देने में लगे हैं. एक तरफ जहां इन दलों के नेताओं के अलग-अलग प्रोफाइल की धमक देखने को मिल रही है. वहीं दूसरी तरफ पार्टी के अपने अकाउंट और पेज हैं. बीजेपी के नेता मानते हैं कि मौजूदा दौर में तकनीक का प्रयोग बढ़ा है और पार्टी की पहुंच बढ़ाने के लिए इन सब साधनों का उपयोग करना पड़ता है.

रैली और जनसभा
पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष आदित्य साहू ने कहा कि इन सब के अलावे सबसे ज्यादा विश्वसनीय साधन रैली और जनसभा ही है. उन्होंने कहा कि पुराने समय में जहां ज्यादा रैलियां जनसभाएं होती थी. वहीं अब संख्या में कमी आई है. लेकिन अभी भी जनता के बीच अपनी बात रखने का यह सबसे सशक्त माध्यम है. साहू ने कहा कि बीजेपी इस पर विश्वास रखती है क्योंकि 5 साल काम करने के बाद सरकार वापस जनता के बीच जाकर अपनी बात रखती है.

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'सारे साधनों का एक साथ इस्तेमाल'
झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय महासचिव प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य ने कहा कि दरअसल पुराने जमाने में चुनाव प्रचार के लिए लंबा वक्त मिलता था. 30 दिन से 45 दिन का वक्त रहता था जिसमें पार्टियां अपने अनुसार रैली और जनसभाएं प्लान करती थी. मौजूदा दौर में समय कम है और ज्यादा से ज्यादा लोगों को कवर करना होता है इसलिए राजनीतिक दल सारे साधनों का एक साथ इस्तेमाल करने में विश्वास रखते हैं.

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