पलामूः जलवायु और बढ़ती आबादी पर्यावरण (Environment) के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं. विकास के नाम पर जंगल के जंगल को मिटाया जा रहा है. दुनियाभर में पर्यावरण को बचाने की पहल की जा रही है. लेकिन आधुनिकता की आड़ में इसकी अनदेखी की जी रही है. फिर भी लोग पर्यावरण को बचाने के लिए लगातार आगे आ रहे हैं, आंदोलन कर रहे हैं, कई तरह के अभियान चला रहे हैं.
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नक्सलियों के गढ़ पलामू से भी पर्यावरण बचाने का संदेश पुरजोर तरीके से प्रसारित हो रहा है. इसमें मील का पत्थर साबित हो रहा है, यहां बनने वाला पर्यावरण धर्म मंदिर (Environment Dharma Mandir). जिसकी पहल विश्वव्यापी पर्यावरण संरक्षण अभियान (worldwide environmental protection campaign) और वनराखी मूवमेंट (Vanrakhi Movement) के प्रणेता कौशल किशोर जायसवाल ने की है.
जिस इलाके में कभी नक्सलियों की गोलियों की तड़तड़ाट गूंजती थी, अब उस इलाके से पर्यावरण को बचाने का संदेश दिया जाएगा. एक ऐसा इलाका जहां कभी नक्सलियों का साम्राज्य चलता था, दहशत और खौफ जिनका धर्म था. अब उस इलाके में पर्यावरण को लोग धर्म मानेंगे. हम बात कर रहे झारखंड राजधानी रांची से करीब 230 किलोमीटर पलामू के छतरपुर के डाली पंचायत की. जहां पर्यावरण धर्म मंदिर की स्थापना की जा रही है.
हमने देवी-देवताओं, मशहूर लोगों या सेलिब्रेटी का मंदिर सुना होगा. लेकिन यह पहली बार ऐसा है कि पर्यावरण को धर्म मानकर उनका मंदिर बनाया जा रहा है. पलामू के डाली पंचायत में इस मंदिर का निर्माण कराया जा रहा है. पर्यावरण मंदिर की स्थापना विश्वव्यापी पर्यावरण संरक्षण अभियान और वनराखी मूवमेंट के प्रणेता कौशल किशोर जायसवाल (Kaushal Kishore Jaiswal) कर रहे हैं.
पर्यावरण बचाने का संकल्प लेते लोग पर्यावरण बचाने का संदेश पलामू के छतरपुर के डाली में पर्यावरण धर्म मंदिर की स्थापना की जा रही है. करीब पांच एकड़ में मंदिर का प्रांगण होगा. जहां विश्व के 110 देशों के पेड़-पौधों की प्रजातियां मौजूद होंगी. 20 से अधिक दुर्लभ प्रजाति के पौधे हैं. प्रमंडलीय आयुक्त जटाशंकर चौधरी (Divisional Commissioner Jatashankar Chaudhary) ने पर्यावरण धर्म मंदिर की आधारशिला रखी है. आयुक्त बताते हैं कि पर्यावरण को बचाना जरूरी है, यही हमारी सभ्यता का आधार है, लोगों के बीच पर्यावरण को बचाने का संदेश फैलाने की जरूरत है, आम लोगों को जागरूक करना जरूरी है ताकि पर्यावरण बचाने में उनकी भी बराबर की सहभागिता हो.
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क्या है पर्यावरण धर्म
पर्यावरण धर्म को लेकर कौशल किशोर जायसवाल का मानना है कि पेड़ों को भाई मानना और प्रत्येक जन्मदिन पर एक पौधा लगाना ही पर्यावरण धर्म है. इस धर्म को मानने वाले ही मेरे भाई-बंधु हैं. मैं जात-पात में विश्वास नहीं करता, पर्यावरण को बचाना ही अपना धर्म है. पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता इस कदर फैली कि बरसात के मौसम में कई जिलों से लोग पौधे के लिए उनके पास आते हैं, उनसे पौधा लगाने के गुर सीखते हैं.
45 साल से पर्यावरण बचाने का संदेश दे रहे कौशल किशोर जायसवाल
पलामू के कौशल किशोर जायसवाल 45 साल से पर्यावरण बचाने का संदेश दे रहे हैं. कौशल किशोर जायसाल अब तक 40 लाख से अधिक पौधे लगा चुके हैं. उन्होंने ईटीवी भारत को बताया कि पहली आजादी में हम जी रहे है, अब दूसरी आजादी को बचानी है. दूसरी आजादी का मतलब पर्यावरण है. मानवीय भूल के कारण पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. धरती पर 1372 प्रजातियों पर खतरा है.
उन्होंने कहा कि कोविड 19 काल में ऑक्सीजन की कमी सबने देखी है. आदमी को संकट की घड़ी में प्लांट से ऑक्सीजन (Oxygen) मिल सकती है. लेकिन पशु-पक्षी और अन्य जीवों को कहां से ऑक्सीजन मिलेगा. पर्यावरण को बचाने और खुद को जिंदा रखने के लिए पेड़ लगाने वाले जरूरी है. इस मंदिर से पर्यावरण को बचाने का संदेश दिया जाएगा.
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कौन हैं कौशल किशोर जायसवाल
पलामू जिला में छतरपुर अनुमंडल के डाली गांव के कौशल किशोर जायसवाल का नाम पर्यावरण संरक्षण के कारण राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है. जायसवाल अब तक 27 लाख पौधे नि:शुल्क बांट चुके हैं. साल 1976-77 में अपनी 13 एकड़ जमीन में वृक्षारोपण से प्रेरणा मिली, इसके बाद इलाके के लोगों को इसका फायदा बताते हुए पर्यावरण की रक्षा के लिए जागरूक करना शुरू किया. शुरुआती दौर में लोग अपनी जमीन पर पेड़ लगाने से झिझकते थे. लोगों को डर था कि सरकार पेड़ लगाने पर उनकी जमीन ले लेगी. काफी समझाने कर वो लोगों को नि:शुल्क पौधा देकर पेड़ लगाने के लिए राजी करिया. अब तक जिला में 200 हेक्टेयर भूमि पर पौधा लगवा चुके हैं.
न्यजीलैंड की कॉफी का पौधा पिता की बातों से मिली प्रेरणा
1967 के भीषण अकाल (Famine) में जब उनके पिता स्व. मोहनलाल खुरजा पर्यावरण असंतुलन से हुए अकाल की चर्चा कर रहे थे, तब कौशल 12 वर्ष के थे. उस वक्त उनकी समझ में इतना ही आया कि पेड़-पौधे होते तो अकाल नहीं पड़ता. उस दिन यह बात उनके लिए प्रेरणा स्रोत बन गई. जैसे-जैसे बड़े हुए पैतृक व्यवसाय के साथ वनरोपण के प्रति रुझान बढ़ा. फिर पौधा खरीदकर नि:शुल्क पौधा वितरण करते चले गए.