जमशेदपुर: पूर्वी सिंहभूम के गुड़ाबांधा थाना क्षेत्र का एक ऐसा गांव है जहां आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद कई मूलभूत सुविधाओं से यह वंचित है. आज तक गांव में मोबाइल कनेक्टिविटी नहीं पहुंची है. यहां राज्य सरकार की सरकारी योजनाएं भी नहीं पहुंच पाती. वहीं पूर्व नक्सली ग्रामीणों के बीच कोरोना संक्रमण से बचने के लिए मानवता का पाठ पढ़ा रहा है.
मूलभूत सुविधाओं से वंचित है गांव
बता दें कि लखईडीह गांव में कभी किसी फिल्म के डायलॉग की तरह एक वाक्या मशहूर हुआ करता था. गांव में जब बच्चा रात को नहीं सोता था तब मां कहती थी सो जा बेटा नहीं तो महेशर आ जाएगा और वर्षों बाद नक्सली लखईडीह गांव पहुंच कर अपने दोस्त बबलू सुंडी के साथ कोरोना की इस विकट घड़ी में ग्रामीणों को खाना-खिला रहे हैं.
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महेशर मुर्मू ने 2009 में किया था सरेंडर
जमशेदपुर से तकरीबन 60 किलोमीटर दूर झारखंड-ओडिशा की सीमा पर तीन पहाड़ों के ऊपर बसा लखईडीह गांव है. जहा तकरीबन 60 से 80 आदिवासी और सबर जनजाती के परिवार रहते हैं. यह इलाका कभी नक्सलियों का गढ़ माना जाता था. कई बार नक्सलियों से पुलिस की मुठभेड़ हो चुकी है. इस इलाके में नक्सली महेशर एरिया कमांडर हुआ करता था. महेशर मुर्मू 2009 में सरेंडर के बाद से गांव में रहा था.
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पूर्व नक्सली गांववालों की मदद कर रहा
वहीं, जब से कोरोना महामारी पूरे देश में फैला है तब से पूर्व नक्सली भी गांव वालों की मदद कर रहा है. नक्सली तीनों समय की खाद्य सामग्री भी बांट रहा है. गावं में मास्क और सेनेटाइजर नहीं है. फिर भी गांव के लोग काफी जागरूक हैं. वे गमछा से मुंह ढक कर रहते हैं. पूर्व नक्सली कमांडर महेशर मुर्मू ने बताया कि गावोंवालों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है. कोरोना से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका गांव में ही है. प्रकृति इतनी अच्छी है की कोरोना का डर गांव में अब नहीं लगता है. एक समय था जब इस इलाके के एरिया कमांडर हुए करते थे, तब हम व्यवस्था के खिलाफ लड़ते थे और आज हम व्यवस्था के साथ मिलकर कोरोना से लड़ रहे हैं.