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बिना जोड़ की बेजोड़ कड़ाही बनाते हैं हजारीबाग के कारीगर, पूजा के समय होता है इसका खास इस्तेमाल - पूजा स्पेशल कड़ाही

ऐसे तो कड़ाही हर घर में दिखती है, लेकिन हजारीबाग के विष्णुगढ़ प्रखंड के अचलजामो गांव की कड़ाही बेहद खास है. एक परिवार पिछले 300 सालों से कड़ाही अपने हाथों से बनाता आ रहा है. आलम यह है कि इस कड़ाही की मांग जिले ही नहीं बल्कि महानगरों में भी देखने को मिलती है.

Hazaribag artisans make woks from scrap brass
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Published : Nov 12, 2020, 6:37 AM IST

हजारीबाग: जिले के विष्णुगढ़ के अचलजामो का एक परिवार लगभग 300 सालों से एक विशेष प्रकार की कड़ाही का निर्माण कर रहा है. जिसे बिना जोड़ की कड़ाही कहा जाता है. आमतौर पर जो कड़ाही हमलोग घर में खाना बनाने के लिए उपयोग में लाते हैं उसमें एक जोड़ रहता है. इसके साथ ही साथ हैंडल को भी जोड़ किया जाता है, लेकिन विष्णुगढ़ के अचलजामो के रहने वाले एक परिवार के लोग बिना जोड़ की ही कड़ाही बना रहे हैं, जो पीतल का होता है. यहां पूरा काम हाथों से होता है.

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'कबाड़ से बनाते हैं कड़ाही'

कड़ाही बनाने वाले कारीगर बताते हैं कि हमलोग अपने पूर्वज से यह कला सीखे हैं. पहले मिट्टी का ढांचा तैयार होता है और उस ढांचे में पीतल को हम लोग गला कर डालते हैं. गला हुआ पीतल समेत ढांचा भट्ठी में डाला जाता है और एक निश्चित तापमान के बाद वह आकार ले लेता है. ढांचा को ठंडा किया जाता है. इसके मिट्टी अलग हो जाती है और कड़ाही बाहर निकल आती है. इस कड़ाही में किसी भी तरह का जोड़ नहीं होता है.

पूजा के समय विशेष मांग

इस कड़ाही की मांग पूजा के समय विशेष रूप से होती है. छठ, दीपावली और दुर्गा पूजा में कड़ाही की मांग बढ़ जाती है. ऐसे में यहां के कारीगर एक बार में सात से आठ कड़ाही का निर्माण एक साथ करते हैं ताकि उन्हें अच्छा मूल्य मिल सके. दरअसल, यह कड़ाही पीतल की होती है. यहां के कारीगर कबाड़ वालों से पीतल खरीदते हैं और फिर उसे भट्ठा में गलाया जाता है. कहा जाए तो यह बेजोड़ कड़ाही कबाड़ के सामान से बनता है.

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कारीगरों की हालत दयनीय

इसे बनाने वाले इन दिनों बेहद गरीबी में अपना जीवन-यापन कर रहे हैं. उनका कहना है कि हमारे कड़ाही की मांग महानगरों में भी है. बड़े-बड़े व्यापारी यहां पहुंचते हैं और हम लोगों से कड़ाही खरीद लेते हैं, लेकिन जो मूल्य मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है. बिचौलिए के कारण हम सस्ते में सामान दे देते हैं. अगर हमें उचित प्लेटफार्म मिले तो हमारी कला दूर तलक तक जाएगी और हमारा भरण-पोषण भी अच्छे तरीके से होगा.

300 साल से पुरानी कला अब गुमनामी की जिंदगी में जी रही है. जरूरत है जिला प्रशासन, व्यापारी और आम जनता को मिलकर इस कला को प्रोत्साहित करने की, ताकि यह कला भी जीवित रह सके और इनका लालन पालन भी हो सके.

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