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विश्व आदिवासी दिवस: विरासत को सहेजते महली आदिवासी, माड़-भात प्रिय भोजन

देवघर जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर बसे एक गांव में रहने वाले महली आदिवासी अपनी हुनर के सहारे भरन-पोषण कर रहे हैं. धार्मिक कार्य से लेकर सामाजिक परंपराओं का निर्वहन आज भी ठीक उसी तरह निभाते हैं जैसे इनके पूर्वज निभाते रहे हैं. इस समाज में बलि प्रथा को काफी महत्व दिया जाता है. यही वजह है कि गांव के बने तमाम घरों के आंगन में बकरी और मुर्गियां की झलक नजर आती है.

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Published : Aug 6, 2019, 6:29 AM IST

देवघर: आज 21वीं सदी में जब भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया चांद और मंगल तक का सफर तय कर रही है. ऐसे में भारत की पौराणिक और ऐतिहासिक विस्तार को सहेजकर रख पाने में आदिवासी समुदाय सभ्य समाज के इंसानी दुनिया के सामने एक बानगी पेश करती नजर आ रही है. महली आदिवासी के 25 परिवार आज भी अपनी परंपरा और विरासत को सहेज कर अपनी पीढ़ी को न सिर्फ परंपरा का निर्वहन करने की सीख दे रहे हैं बल्कि देश और दुनिया के सामने एक नजीर भी पेश कर रहे हैं.

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महली जाति प्रोट्रोस्ट्रालॉयड प्रजाति से संबंधित हैं. जिसके कारण इनमें मुंडा, हो और संथाली जनजाति के लोगों से बहुत सी समानताएं पाई जाती हैं. इनके बहुत से गौत्र मिलते-जुलते हैं. महली आदिवासी को चार भागों में बंटा गया है. बांसफोड़ महली, पातर महली, सुलंकी महली और मुंडा महली. बांसफोड़ और पातर महली का मुख्य कार्य बांस से संबंधित है जबकि सुलंकी और मुंडा महली का मुख्य काम खेती है.


प्रकृति पूजक हैं महली आदिवासी
महली आदिवासी भी प्रकृति पूजक हैं और जंगल, पहाड़, नदियों और सूर्य की आराधना करते हैं. सरना धर्म के सोहराई, गोहाल पूजा, करमा, जितिया पूजा करने के साथ ही हिंदु धर्म के सभी व्रत-त्योहारों को भी मनाते हैं. कई पूजा-पाठों में मुर्गे और बकरे की बलि दी जाती हैं. झारखंड में महली लोग सादरी, संथाली, नागपुरी, बंगला और खोरठा भाषा बोलते हैं.


झारखंड के कई जिलों में है बसेरा
महली आदिवासी झारखंड में रामगढ़, रांची, हजारीबाग, लोहरदगा, गुमला, धनबाद, बोकारो, जमशेदपुर, चक्रधरपुर, गिरीडीह, संथाल-परगना, सिंहभूम जिलों में हैं. झारखंड में महली आदिवासियों की जनसंख्या लगभग डेढ़ लाख है.

पूर्वजों के हुनर से भरन-पोषण
देवघर जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर बसे एक गांव में रहने वाले महली आदिवासी शहरी चकाचौंध में अपनी हुनर के सहारे भरन-पोषण कर रहे हैं, जो इन्हें इनके पूर्वजों से मिले हैं. मिट्टी के कच्चे मकान में बच्चे का कोलाहल और पेड़ के नीचे बांस से समान बनाते बुजुर्ग और झोपड़ी की छत पर लगे डीटीएच के सहारे आदिवासी परिवार आधुनिकता की दौड़ में शामिल तो हैं, लेकिन घर के आंगन में आज भी वही पुरानी परंपरा को सहेजते नजर आते हैं.


परंपरा में आस्था
घर के मुखिया बताते हैं कि यह बांस की कमानी नहीं बल्कि वह कमान है जो पूरे परिवार का भरण-पोषण करता है. जानकारों की मानें तो इस समुदाय के लोगों को अपनी पुरानी परंपरा में पूरी आस्था है. धार्मिक कार्य से लेकर सामाजिक परंपराओं का निर्वहन आज भी ठीक उसी तरह निभाते हैं जैसे इनके पूर्वज निभाते रहे हैं. इस समाज में बलि प्रथा को काफी महत्व दिया जाता है. यही वजह है कि गांव के बने तमाम घरों के आंगन में बकरी और मुर्गियां की झलक नजर आएगी. इनका इस्तेमाल अक्सर पूजा या किसी उत्सव के आयोजन में किया जाता है.

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माड़-भात प्रिय भोजन
माड़-भात आज भी इनका प्रिय भोजन है. हां, माड़-भात की इस थाली में एक चीज जरूर बदली है वह है कटोरी. क्योंकि पत्तल और पत्ते की जगह अब स्टील की थाली और कटोरी ने ले ली है. ऐसा नहीं है कि बदलते भारत में इनकी सूरत नहीं बदली है. इन जनजातीय परिवार के बच्चे भी अब स्कूल जाते हैं. शिक्षा की तरफ अब इनका भी रुझान बढ़ा है. बच्चे किताबों के ककहरे फर्राटेदार तरीके से बोलते हैं और इनके बुजुर्ग इनकी तरफ टकटकी लगाए आपने बच्चो के बढ़ते कदम को आसा भरी नजरों से देखते हैं.


स्वच्छ भारत की झलक
सरकार ने भी इनके विकास और उत्थान को लेकर कई योजनाओं को जमीन पर उतारा है. गांव के भीतर असर भी देखने को मिलता है. गांव के भीतर ज्यादातर पक्के मकान हैं. सड़कों का हालात भी बेहतर है. स्कूल, स्वास्थ्यकेंद्र इसके अलावे एक तस्वीर है जो सुकून देने वाली थी वह शौचालय थी. गांव के तकरीबन तमाम घरों में स्वच्छ भारत की झलक दिख जाती है.

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सरकार से एक मांग
बात रहन-सहन पहनावे और वेशभूषा की करें तो उसमें कुछ खास बदलाव नहीं दिखता है, लेकिन पहनावे में फर्क जरूर दिखता है. गेरुआ धोती की जगह अब कमीज और पेंट ने ले ली है. कुल मिलाकर यह महली आदिवासी गांव विकास के रास्ते पर कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है, लेकिन इनकी एक पीड़ा आज भी बरकरार है. अन्य पिछड़ा वर्ग के इस समुदाय की मांग है कि इन्हें भी सरकार अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करें.

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