सोलन: दुनिया के नक्शे पर पर अपनी पहचान बना चुके हिमाचल प्रदेश का नामकरण 72 साल पहले हुआ था. दरअसल 1948 में 28 रियासतों के राजाओं ने प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाई एस परमार की मौजूदगी में अपनी राज गद्दी छोड़ सरकार से हाथ मिला लिया था. हिमाचल प्रदेश के नामकरण से जु़ड़े ऐतिहासिक लम्हों की गवाही सोलन शहर की एक इमारत आज भी देती है.
शाही रजवाड़ा शैली का बना यह भवन आज भी अपने आप में एक ऐतिहासिक धरोहर होने का एहसास दिलाता है, उस समय यह भवन बघाट रियासत के 77वें राजा दुर्गा सिंह का दरबार हुआ करता था, जहां कभी बघाट रियासत के राजा का दरबार सजता था. आज भी ये गेट उस राजशााही ठाठ-बाठ की गवाही देता है. कलाकृतियों से सजे इस मुख्य द्वार के बाहर खड़े दरबान बघाट रियासत के राजाओं का स्वागत किया करते थे.
बघाट रियासत के 77वें राजा दुर्गा सिंह का दरबारी गेट जब एक साथ 28 रियासतों के राजाओं ने छोड़ा अपना शासन
ठीक 72 साल पहले 28 जनवरी 1948 को इसी भवन के दरबारी हॉल में एक साथ 28 रियासतों के राजाओं के बीच एक बैठक का आयोजन किया गया. इस बैठक में हिमाचल प्रदेश के 28 रियासतों के राजाओं ने एकजुट होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार भी मौजूदगी में अपनी सत्ता को छोड़ने का ऐलान किया.
जहां एक ओर आजादी के बाद का भारत विश्व मानचित्र पर अपनी नई पहचान बना रहा था, इसी बीच सोलन बघाट रियासत के दरबारी भवन की दीवारों के बीच प्रदेश के नाम को लेकर 28 रियासतों के राजा और प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाई एस परमार के बीच प्रदेश के नाम को लेकर खींचतान चल रही थी.
दरअसल, डॉ. परमार चाहते थे कि उत्तराखंड राज्य का जौनसर बाबर क्षेत्र भी हिमाचल में मिले और इसका नाम 'हिमालयन एस्टेट' रखा जाए, लेकिन बैठक में मौजूद 28 राजाओं के बीच डॉ. परमार को किसी का साथ नहीं मिला और देवभूमि का कागजी नाम 'हिमाचल प्रदेश' रखने पर सहमति बनी.
जिसके बाद एक प्रस्ताव पारित कर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को मंजूरी के लिए भेजा गया. सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर मोहर लगाकर हिमाचल का नाम घोषित किया और आज ये नाम इस पहाड़ी राज्य की पहचान है.
आज भी मौजूद है दरबारी द्वार और तीन कुर्सियां
आजादी के 7 दशक बाद भी ऐतिहासिक धरोहर की सुध नहीं ली जा रही है, हांलाकि दरबारी हॉल में आज भी कुछ चीजों में उस समय की झलकियां देखने को मिलती हैं. दरबारी द्वार और उस पर की गई नक्काशी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है.
बघाट रियासत के 77वें राजा दुर्गा सिंह का दरबारी गेट पर की गई नक्काशी. वहीं, दरबारी हॉल में उस समय की तीन कुर्सियां आज भी मौजूद हैं, लेकिन पर्याप्त रखरखाव ना होने के कारण इतिहास की गवाह इन कुर्सियों की हालत भी बद से बदतर हो चली है. कुर्सियों को लकड़ी ठोककर जुगाड़ के सहारे रखा गया है.
एक समया में राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही ये इमारत आज तिल-तिलकर दम तोड़ रही है. मौजूदा समय में यहां लोक निर्माण विभाग का कार्यालय है. जो बीते कई सालों से इस ऐतिहासिक इमारत में चल रहा है, लेकिन जिलेभर के सरकारी भवनों को बनाने और रखरखाव करने वाले लोक निर्माण विभाग का कार्यालय इस जर्जर भवन में चल रहा है.
लोहे के एंगल के सपोर्ट पर खड़ी है इमारत
इतिहास को खुद में समेटे इस इमारत की सुध ना विभाग को है और ना सरकार ही को, हालत इतनी दयनीय है कि कई हिस्से लोहे के एंगल के सपोर्ट पर खड़े हैं. जो कभी भी हादसे का सबब भी बन सकते हैं. हालांकि, पूर्व की कांग्रेस सरकार के दौरान इस ऐतिहासिक भवन का कायाकल्प करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने घोषणा भी की थी और इसका जीर्णोद्धार कर इसे हेरिटेज बिल्डिंग बनाने की बात भी कही थी, लेकिन सियासत और सरकार को इस इतिहास की शायद फिक्र नहीं है.
इस भवन को धरोहर घोषित करने की मांग
वहीं, साहित्यकारों का कहना है कि इस भवन को धरोहर घोषित करने के लिए उन्होंने पूर्व सरकार और मौजूदा सरकार से भी मांग की है ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सके इस भवन का हिमाचल के इतिहास में क्या महत्व है. लेकिन अब तक इस ओर कोई कदम नहीं उठाया गया है. इतिहास को सुरक्षित रखने के लिए जो पहल होनी चाहिए थी उसका अब तक इंतजार है. कभी जहां राजा का दरबार लगता था, वहां सरकारी कार्यालय चल रहा है. इस धरोहर को भी इंतजार है कि कब कोई उसकी सुध लेगा.
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