शिमला:आखिरकार हिमाचल प्रदेश में पांच साल बाद सत्ता बदलने का रिवाज कायम रहा. भाजपा ने दावा किया था कि इस बार पार्टी 37 साल से चले आ रहे रिवाज को बदलेगी, लेकिन ये संभव नहीं हुआ. जनता में इस समय सबसे अधिक चर्चा इसी बात की है कि भाजपा की लुटिया डूबी तो आखिर क्यों डूबी. भाजपा की हार का मुख्य कारण कर्मचारियों का ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर आंदोलन रहा. उस आंदोलन को बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सदन में गर्वोक्ति कि जिसे नेताओं वाली पेंशन चाहिए वो चुनाव लड़े, भी आम जनता को पसंद नहीं आई. भाजपा का टिकट वितरण भी जनता को नहीं पचा. बागियों ने पार्टी का खेल बिगाड़ा.
नालागढ़ से कांग्रेस से आए लखविंद्र राणा को टिकट दिया और अपने मजबूत प्रत्याशी केएल ठाकुर को दरकिनार किया गया. केएल ठाकुर चुनाव जीत गए हैं. पुलिस पेपर भर्ती लीक मामले में भी भाजपा की छीछालेदर हुई. हालांकि भाजपा सरकार ने तुरंत पेपर रद्द कर नए सिरे से प्रक्रिया शुरू की, लेकिन पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा. महंगाई एक अन्य मुद्दा रहा.
पार्टी ने आंतरिक सर्वे में भी महंगाई को मुद्दा माना था. इसके अलावा सत्ता विरोधी रुझान भाजपा की हार का बड़ा कारण रहा. ये सत्ता विरोधी रुझान ही था कि सरकार के सिर्फ दो ही मंत्री चुनाव जीत पाए. इस बार सुरेश भारद्वाज, वीरेंद्र कंवर, राजीव सैजल, रामलाल मारकंडा, सरवीण चौधरी, गोविंद ठाकुर, राकेश पठानिया, राजेंद्र गर्ग को हार का सामना करना पड़ा. भाजपा की लाज काफी हद तक मंडी व चंबा जिला ने बचाई. मंडी में पार्टी को दस में से नौ सीटें मिल गई. चंबा में तीन सीटों पर जीत हासिल हुई. भाजपा को नए चेहरों ने जीत दिलाई. करसोग से दीपराज और आनी से लोकेंद्र का नाम इनमें प्रमुख है.
खैर, हिमाचल में जिस समय भाजपा उपचुनाव में हारी थी, उस समय पार्टी के पास संभलने का मौका था. भाजपा का दावा है कि वो 365 डेज चुनाव के मोड पर रहती है, जो सही भी है, लेकिन ऐसी सक्रियता का क्या लाभ जिसका परिणाम सफलता में तबदील न हो सके. तो उपचुनाव की हार के बाद भी पार्टी ने सबक नहीं सीखा. सरकार ने विभिन्न विभागों में भर्तियों के मामलों को उलझा कर रखा. कुछ मामले कोर्ट तक पहुंचे. इस कारण बेरोजगार युवाओं में रोष था.