शिमलाः हिमाचल जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है और ये नाम यहां के देवी देवताओं में लोगों की अटूट आस्था और श्रद्धा के चलते ही मिला है. यहां देवी देवताओं से जुड़ी अनेक कहानियां और प्रथाएं हैं, जो आज भी निरंतर चली आ रही है. सदियों पुरानी इन प्रथाओं का आज भी पूरे श्रद्धा भाव से पालन किया जा रहा है. इसी का एक उदाहरण है जिला शिमला के ठियोग क्षेत्र के दलयां टयाली की मां जेएश्वरी.
माता जेएश्वरी मंदिर ठियोग जेएश्वरी माता हर 12 से 20 साल बाद हिमाचल के ही नगरकोट कांगड़ा के मां बृजेश्वरी के मंदिर में बने सूरजकुंड में स्नान के लिए जाती हैं. इस परंपरा की खास बात ये है माता को उनके मूल स्थान से नगरकोट कांगड़ा तक ले जाने के लिए भक्त पैदल ही निकलते हैं और 15 दिनों में इस यात्रा को पूरा करते हैं.
15 दिनों के भीतर होती है यात्री पूरी
इस बार भी 20 सालों के बाद दलयां टयाली की मां जेएश्वरी नगरकोट कांगड़ा के माता बृजेश्वरी मंदिर के सूरजकुंड में स्नान के लिए निकली हैं और इस यात्रा में 30 से अधिक लोग माता के गुरों और पुजारी सहित शामिल हुए हैं. भक्तों का यह दल मां जेएश्वरी को गुप्त रूप से यानी कि गाची के रूप में स्नान के लिए ले जा रहे हैं और माता रानी को सूरजकुंड में स्नान करवा कर यह दल 15 दिनों के भीतर यात्रा को पूरा कर वापिस अपने मूल स्थान पर लेकर आएंगे.
1996 के बाद अब माता रानी को इस स्नान के लिए भक्तों की ओर से ले जाया जा रहा है. यात्रा शुरू हो चुकी है और इसका पहला पड़ाव भी शिमला के प्रसिद्ध काली बाड़ी मंदिर में हुआ है, जहां से मां काली के दर्शन करने के बाद यह दल आगे यात्रा के लिए रवाना हुआ है. यात्रा नगरकोट कांगड़ा में मां बृजेश्वरी के मंदिर में बने सूरजकुंड में माता को स्नान करवाने के बाद वापिस लौटेगी. वापिस अपने मूल स्थान पर लौटने के बाद भव्य शांत यज्ञ का आयोजन होगा, जिसमें स्थानीय देवता भी शामिल होंगे.
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वाद्ययंत्र उल्टे किए जाते हैं और नहीं होते कोई भी शुभ कार्य
इस यात्रा के पीछे का इतिहास और इसकी मान्यता भी बेहद रोचक है. जब मां जेएश्वरी इस स्नान के लिए अपने मूल स्थान से निकलती है उस समय मंदिर में बजने वाले वाघयंत्रों को उल्टा कर दिया जाता है. इन वाद्ययंत्रों के उल्टा होने के बाद कोई भी शुभ कार्य इलाके नगर और आस पास के गावों में नहीं होता है न ही कोई वाद्ययंत्र बजता है. माता के स्नान से वापिस आने के बाद शांत यज्ञ का आयोजन होने के समय इन वाद्ययंत्रों को बजाया जाता है, जिसके बाद शुभ कार्य शादी विवाह सहित अन्य कार्य इलाके में किए जाते है.
इस मान्यता और परंपरा के बारे में बताते हुए यात्रा दल के मुखिया लायक राम शर्मा ने कहा कि यह यात्रा 16वीं शताब्दी से चली आ रही है. इस यात्रा में पुजारी ओर गुर के अलावा हर गांव से एक व्यक्ति शामिल होता है. यात्रा पैदल ही पूरी की जाती है और इस दौरान खुली छत के नीचे रहना, एक समय का भोजन करने के साथ ही भूमि आसन सोने के लिए होता है. उन्होंने कहा कि माता के आदेशानुसार ही माता के प्रतिनिधित्व में यह यात्रा निकलती है और मान्यता है कि इस सूरजकुंड में स्नान करने के बाद माता और शक्तिशाली हो जाती है.
यहां से शक्तियों को सृजित कर जब माता अपने मूल स्थान में वापिस आती है तो उसके बाद शांत यज्ञ का भव्य आयोजन मंदिर परिसर में होता है. लोगों की भी इस आयोजन में अटूट आस्था है और यही वजह है कि जब मां जेएश्वरी स्नान के लिए अपने मूल स्थान से जाती है तो यहां के लोग कोई भी शुभ कार्य नहीं करते है, जिसके पीछे की वजह यह है कि उनकी रक्षक मां अपने स्थान पर नहीं है.
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