शिमला:कोरोना के चलते प्रदेश के अन्य मेलाें की तरह इस बार शिमला में पत्थर मेले का भी आयोजन नहीं हो पाया. 120 साल में पहली बार पत्थराें का मेला आयोजित नहीं किया गया. हालांकि राजघराने के लोगों ने रस्म अदायगी के लिए पूजा अर्चना की और खून का तिलक लगाया. इस बार मेले का आयोजन नहीं किया गया और ज्यादा लोगों को इकट्ठा नहीं होने दिया गया.
एक दुसरे पर पत्थर नहीं फेंके गए. मंदिर में राजघराने के सदस्यों की ओर से पूजा अर्चना की गई. चौक पर ढोल नगाड़ों के साथ राजघराने के लोग पहुंचे, जहां राज घराने के सदस्य जगदीप कंवर ने अपने खून का तिलक लगाया. राजघराने के सदस्य जगदीप कंवर ने कहा कि सदियों से परंपरा चली आ रही है, लेकिन इस बार कोरोना के चलते केवल रस्म अदायगी की गई और मेले का आयोजन नहीं किया गया.
जिला प्रशासन के आदेशों का पालन करते हुए पत्थर नहीं चलाए गए और न ही मेला का आयोजन किया गया. उन्होंने कहा की पहले यहां मानव बलि भद्रकाली को चढ़ाई जाती थी, लेकिन रानी सत्ती हुई और इसके बाद इसे बंद किया गया. ये पत्थरों का खेल शुरू किया गया और इसे खेल की भावना से खेला जाने लगा.
बता दें यह मेला दिवाली के दुसरे दिन मनाया जाता है. मान्यता है कि धामी में मां भीमा काली मंदिर में हर साल इसी दिन परंपरा के अनुसार मानव बलि दी जाती थी. यहां पर राज करने वाले राणा परिवार की रानी इस बलि प्रथा को रोकना चाहती थी. इसके लिए रानी यहां के चौराहे में सती हो गई और नई पंरपरा शुरू की गई. इस स्थान का खेल चौरा रखा गया है और यहा पर ही पत्थर का मेला मनाया जाता है.
पहले जहां पशु बलि दी जाती थी. वहां लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं, जिसका खून निकलता है उसके खून से भद्रकाली का तिलक लगाया जाता है. परंपरा के मुताबिक एक ओर राज परिवार की तरफ से जठोली, तुनड़ू और धगोई और कटेड़ू खानदान की टोली और दूसरी तरफ से जमोगी खानदान की टोली के सदस्य ही पत्थर बरसाने के मेले में भाग ले सकते हैं.
मेले में आए बारी लोग पत्थर मेले को सिर्फ देख सकते हैं, लेकिन वह पत्थर नहीं मार सकते हैं. ‘खेल का चौरा’ गांव में बने सती स्मारक के एक तरफ से जमोगी दूसरी तरफ से कटेडू समुदाय पथराव करता है. मेले की शुरुआत राज परिवार की ओर से नरसिंह के पूजन के साथ होती है, लेकिन कोरोना के चलते इस बार मेला आयोजित नहीं किया गया.