शिमला:मेले महज मनोरंजन और कारोबार तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका विस्तार संस्कृतियों का विस्तार कहा जाता है. हिमाचल का लवी मेला भी एकसाथ कई संस्कृतियों के रंग लिए हुए है. कोरोना के कारण इस बार मेले की रौनक बेशक कम होगी, लेकिन इसकी स्मृतियों की चमक लगातार निखरती जाएगी.
सदियों से मनाए जा रहे इस मेले की धूम काबुल, कंधार, तिब्बत और उज्बेकिस्तान तक रही है. शिमला जिला के तहत सतलुज नदी के किनारे बसे रामपुर के खाते में लवी मेले का इतिहास और वर्तमान दर्ज है. वैसे इस मेले का इतिहास करीब साढ़े तीन सदी पुराना है. मेला हर साल नवंबर महीने में आयोजित किया जाता है. वर्तमान सदी की बात करें तो वर्ष 1985 में हिमाचल प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुखिया वीरभद्र सिंह ने इसे अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा दिया था.
चामूर्थी घोड़ों की रहती है डिमांड
यहां हर साल करोड़ों रुपए के सूखे मेवों और अन्य सामानों का कारोबार होता है. इस दफा कोरोना संकट के कारण मेला कई बंदिशों के साथ रस्मी तौर पर संपन्न होगा. वैसे मेले का मुख्य आकर्षण चामूर्थी किस्म के घोड़े रहते हैं. ये घोड़े पहाड़ी इलाकों की परिस्थितियों के हिसाब से उपयोगी होते हैं. विख्यात चामुर्थी नस्ल के घोड़े हिमाचल के ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों, मुख्य रूप से बर्फीली स्पीति घाटी में सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के समय से पाए जाते हैं.
यह नस्ल भारतीय घोड़ों की छह प्रमुख नस्लों में से एक है. चामूर्थी घोड़े अधिक ऊंचाई वाले बर्फीले इलाकों में अपने पांव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है. इन घोड़ों का उपयोग तिब्बत, लद्दाख और स्पीति में सामान ढोने के लिए किया जाता रहा है. युद्ध के समय ये उपयोगी साबित होते हैं. देश-विदेश से भी सैलानी लवी मेले के आकर्षण में खिंचे चले आते हैं. इस मेले में ऊनी कपड़ों, सूखे मेवों, शहद, विभिन्न धातुओं के बर्तनों, खेती के औजारों, सेब, चिलगोजा, सूखी खुमानी, अखरोट, ऊन और पशमीना आदि का कारोबार प्रमुख रूप से होता है.
इतिहास में झांक कर देखें तो इस मेले का लवी नाम यहां के पारंपरिक ऊनी वस्त्र लोइये से पड़ा है. पहाड़ी इलाकों में पुरुष ऊन से बना एक पारंपरिक कोट पहनते हैं, जिसे लोइया कहा जाता है. शायद इसी कारण मेले का नाम लवी पड़ा.