शिमला: आजादी की लड़ाई में हिमाचल के दो जन आंदोलनों का प्रमुखता से जिक्र किया जाता है. पहला सिरमौर का पझौता आंदोलन और दूसरा शिमला का धामी गोली कांड. इसके अलावा पहाड़ी वीरों का 1857 की स्वतंत्रता क्रांति से लेकर आजाद हिन्द सेना में अविस्मरणीय योगदान रहा है.
पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश बेशक 15 अप्रैल 1948 को अस्तित्व में आया, लेकिन यहां रियासतों के दौर में कुछ आंदोलन अहम स्थान रखते हैं, जिनमें से एक धामी गोली कांड है. 80 साल पहले 16 जुलाई को धामी में एक गोली कांड हुआ यह गोली कांड राज्य सत्ता के खिलाफ था.
धामी रियासत के राणा की दमनकारी नीतियों के खिलाफ प्रेम प्रचारिणी सभा ने आवाज उठाई. यह सभा बाद में प्रजामंडल के रूप में जाने गई, जिसके मुखिया पंडित सीताराम थे. उन्होंने राणा के समक्ष तीन मांगे रखी थी. इन मांगों में बेगार प्रथा की समाप्ति करो में 50 फीसदी की कमी करना और रियासती प्रजामंडल धामी की पुनर्स्थापना शामिल थी. धामी के राणा दलीप सिंह से इन मांगों को मनवाने के लिए 1939 में 16 जुलाई के दिन करीब 1500 आंदोलनकारियों के एक समूह ने भागमल को हटा कर शिमला से धामी की ओर पैदल कूच किया.
आंदोलनकारियों की इस भीड़ के धामी पहुंचने पर बौखलाए राजा ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया. रियासती पुलिस की गोलीबारी में दो आंदोलनकारी उमा दत्त और दुर्गादास शहीद हो गए और अनेक घायल हो गए. इस गोलीकांड से हर तरफ सनसनी फैल गई, बाद में प्रजामंडल और स्वतंत्रता आंदोलन और भी भड़क गया महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी इसका कड़ा संज्ञान लिया. इस तरह धामी गोलीकांड ने साधारण प्रजा के असाधारण साहस की इबारत लिखी. आज भी धामी गोलीकांड को हिमाचल में स्मरण किया जाता है.
1857 की क्रांति से लेकर पूर्ण आजादी मिलने तक हिमाचल प्रदेश देश के स्वाधीनता संग्राम में भागीदार रहा है. चाहे हिमाचल भौगोलिक दृष्टि से दूरस्थ पिछड़ा हुआ क्षेत्र था, लेकिन फिर भी इस पहाड़ी प्रदेश के लोगों नेम स्वाधीनता संग्राम में अपनी पूरी भागीदारी दर्ज की और स्वतंत्रता के तमाम आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया.
सन 1857 से पहले जहांगीर के समय कांगड़ा के चंद्रभान चंद ने मुगलों से लोहा लिया और छापामार युद्ध से मुगल सेनाओं को परेशान कर दिया था. इसके बाद संसार चंद के पुत्र प्रमोद चंद कटोच और नूरपुर के वजीर राम सिंह पठानिया ने भी ब्रिटिश शासन के दौरान विद्रोह किया.
इसी प्रकार प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर आजादी के लिए लड़े गए विभिन्न आंदोलनों में प्रदेश की सक्रिय भागीदारी रही. चाहे अहिंसा के मार्ग से लड़ा जाने वाला असहयोग आंदोलन हो या फिर हथियारों से लड़ी जाने वाली लड़ाई, स्वाधीनता की लड़ाई में इस देवभूमि के स्वतंत्रता सेनानी अपने प्राणों की आहुति डालने में कभी नहीं हिचकीचाए. असंख्य साहसी वीरों ने अपने जीवन के बेशकीमती क्षण जेल में यातनाएं भोगते हुए हंसते-हंसते बिताए.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ आजाद हिंद फौज के सेनानी सन 1942 में महात्मा गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन का संदेश 'करो या मरो' को कोयल आश्रम के कार्यकर्ताओं ने छाप कर लोगों में प्रचारित करना शुरू किया. इसी उपलक्ष में 18 अगस्त 1942 को चिंतपूर्णी में एक पॉलिटिकल कॉन्फ्रेंस में पहुंचने से पहले ही पुलिस ने लक्ष्मण दास चौधरी, बलदेव सिंह, भागमल कुठेडा, अमर दास को अनेक कार्यकर्ताओं सहित गिरफ्तार कर लिया था. इस घटना के बावजूद महाशय तीरथ राम, पंडित हंसराज, जगदीश राम सहित कई कार्यकर्ता कॉन्फ्रेंस में पहुंच गए.
इसके बाद पुलिस ने इन सब कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर 27 दिन तक अंब थाना की हवालात में रखा. इन लोगों पर मुकदमा चला. जिसके बाद तीर्थ राम गोयल को 2 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया और मुल्तान जेल भेज दिया. सन 1944 में तीर्थ राम को जेल से रिहा किया गया. जब वह जेल से छूट कर वापस आए तो आश्रम पूर्णतया पुलिस के कब्जे में था.
पहाड़ी बाबा कांशी राम के साथ कांग्रेस वॉलिंटियर कोर्पस तीर्थ राम ने आश्रम को पुलिस के कब्जे से मुक्त करवाया. उसी दौरान लाहौर से पंडित ओम प्रकाश को इस आश्रम में बुलाया गया और वहां पर हरिजन सेवक संघ चरखा संघ और ग्राम उद्योग संघ जैसी संस्थाओं का गठन किया गया. महाशय तीरथ राम पूर्णतया गांधीवादी थे और उन्होंने आजीवन खादी वस्त्र धारण किए.