शिमला: आधुनिकता की दौड़ और मशीनी युग में आज हथकरघा उद्योग विलुप्ती की कगार पर है. गिने चुने लोग ही अब इस व्यवसाय से जुड़े हैं, लेकिन हिमाचल की पारंपरिक खड्डी पर शॉल और पट्टू को बनाने की कला को आज भी कुछ लोगों ने सहेज कर रखा है.
ये पारंपरिक पद्धति है जिसे पहाड़ों पर बर्फबारी के बीच चलने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए ऊनी कपड़े तैयार करने के लिए घरों में इस्तेमाल किया जाता था. एक दौर था जब बहुत से लोग इसके जानकर थे और खड्डी पर शॉल, पट्टी बनाने की कला को जानते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बिता और तकनीकी का विस्तार हुआ उससे इस खड्डी की जगह अलग-अलग हाईटेक मशीनों ने ले ली और खड्डी घरों से विलुप्त हो गई, लेकिन अब इस प्राचीन और पारंपरिक तकनीक से लोगों को रूबरू होने का मौका शिमला के इंदिरा गांधी खेल परिसर में लगी हथकरघा और हस्तशिल्प प्रदर्शनी में मिल रहा है.
प्रदर्शनी में पारंपरिक खड्डी को लाया गया है. जिसमें मंडी के कारीगर पारंपरिक तरीके से खड्डी पर शॉल बनाने के साथ ही शॉल की पट्टी भी तैयार कर रहे हैं. यहीं पर खड्डी में लगाने के लिए धागा भी तैयार किया जा रहा है. भेड़ की ऊन को कातने के लिए खड़िया का इस्तेमाल किया जा रहा है तो वहीं, चरखे पर भी इसे काता जा रहा है.यह सारा काम यही प्रदर्शनी में ही कारीगर कर रहे है.
इस तैयार किए गए धागे को खड्डी में लगाकर पट्टी तैयार की जा रही है. इस खड्डी पर काम कर रहे मंडी के कारीगर प्रेम सिंह ने कहा कि उनके पूर्वज भी इस काम को करते थे यही वजह है कि उन्होंने भी इस काम को सीखा है और इस परंपरा को आज भी संजो कर रखने में अपनी भागीदारी दे रहे है. उन्होंने बताया कि काफी मेहनत इस काम में लगती है और अब यह कला भी विलुप्त होती जा रही है तो ऐसे में सरकार को इस तरह का प्रयास करना चाहिए.