शिमला: शनिवार को मोहर्रम मनाया गया. हजरत इमाम हुसैन की शहादत और कर्बला का वाकया (घटना) याद करके गम मनाया गया. शिमला के मोहम्मद सनीम ने कहा कि वे हर साल मोहर्रम पर जुलूस का आयोजन करते आए थे, लेकिन इस बार कोरोना के चलते कोई कार्यक्रम का नहीं किया गया. मस्जिद में ही अमन शांति और कोरोना से निजात के लिए दुआ मांगी गई. कोरोना वायरस का लोगों में संक्रमण न हो इसके लिए फातिहा और निशान चढ़ाने जैसे कार्यक्रम शारीरिक दूरी के नियमों का पालन करते हुए किया गया.
सनीम के अनुसार मोहर्रम महीने का दसवां दिन सबसे खास माना जाता है. मोहर्रम महीने की दस तारीख को कर्बला की जंग में पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी. हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम की रक्षा के लिए खुद को कुर्बान कर दिया था. इस जंग में उनके 72 साथी भी शहीद हुए थे. कर्बला की जंग हजरत इमाम हुसैन और यजीद की सेना के बीच हुई थी. हजरत इमाम हुसैन का मकबरा इराक के शहर कर्बला में उसी जगह है, जहां यह जंग हुई थी. यह शहर इराक की राजधानी बगदाद से 120 किलोमीटर दूर है.
कर्बला की जंग तकरीबन 1400 साल पहले हुई थी. यह जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ और इंसनियत के लिए लड़ी गई थी. दरअसल, यजीद नाम के शासक ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया था और वो अपना वर्चस्व कायम करना चाहता था. उसने इसके लिए बेकसूरों को निशाना बनाया. वह हजरत इमाम हुसैन से अपनी स्वाधीनता स्वीकार कराना चाहता था. उसने इमाम हुसैन को भी तरह-तरह से परेशान किया, लेकिन उन्होंने घुटने नहीं टेके. जब यजीद की यातनाएं ज्यादा बढ़ गईं, तो इमाम हुसैन परिवार की रक्षा के लिए उन्हें लेकर मक्का हज पर जाने का फैसला किया. हालांकि, उन्हें रास्ते में मालूम चल गया कि यजीद के सैनिक वेश बदलकर उनके परिवार को शहीद कर सकते हैं.
इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक नए साल की शुरुआत मोहर्रम के महीने से होती है. शिया मुसलमानों के लिए ये महीना बेहद गम भरा होता है. जब भी मोहर्रम की बात होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है. आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी. इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे. इसलिए कहा जाता है हर कर्बला के बाद इस्लाम जिंदा होता है.
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