शिमला: कभी-कभी अदालतों में अजब-गजब केस आते हैं. पांच साल पहले एक पिता ने बेटे की बीमारी का कारण जानने के लिए आरटीआई के तहत आवेदन किया. पिता ने आरटीआई लगाकर डॉक्टर से जानना चाहा कि आखिर उसके बेटे की बीमारी का कारण क्या है? पिता ने पूछा कि क्या उसके बेटे की बीमारी कम नींद लेने की वजह से है? जब प्रार्थी पिता को जन सूचना अधिकारी की तरफ से संतोषजनक जवाब नहीं मिला तो उसके राज्य सूचना आयोग के समक्ष अपील कर दी. सूचना आयोग ने मेडिकल ओपिनियन ना देने पर डॉक्टर को 15 हजार रुपये जुर्माना जड़ दिया. साथ ही प्रार्थी पिता को 3 हजार रुपये मुआवजा देने के आदेश भी जारी किए.
इस पर डॉक्टर ने याचिका के जरिए हाई कोर्ट की शरण ली. हाई कोर्ट ने डॉक्टर को राहत देते हुए महत्वपूर्ण व्यवस्था जारी की और कहा कि सूचना के अधिकारी अधिनियम के तहत चिकित्सक को राय यानी ओपीनियन देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. अदालत में अपनी ही तरह का ये पहला मामला है. हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएस रामचंद्र राव व न्यायमूर्ति अजय मोहन गोयल ने याचिका कर्ता डॉक्टर सुखजीत सिंह के आवेदन को स्वीकार करते हुए राज्य सूचना आयोग के फैसले को निरस्त कर दिया.
मामले में राज्य सूचना आयोग ने डॉक्टर सुखजीत सिंह को मेडिकल ओपीनियन न देने के लिए जुर्माना ठोका था. आयोग ने ये भी आदेश दिया था कि डॉक्टर आवेदनकर्ता पिता को जरूरी सूचना दे. इसके अलावा डॉक्टर को तीन हजार रुपए मुआवजा देने के लिए भी कहा गया. मामला पांच साल पुराना है. सोमदत्त नामक शख्स ने 7 दिसंबर 2018 को आरटीआई के तहत आवेदन किया और अपने बेटे की बीमारी के कारण को लेकर डॉक्टर की राय पूछी. सोमदत्त ने अपने आवेदन में डॉक्टर से जानना चाहा था कि क्या उसके बेटे की बीमारी कम नींद लेने की वजह से है या नहीं? जन सूचना अधिकारी के जवाब से असंतुष्ट सोमदत्त ने अपील के माध्यम से चुनौती दी. वहां अपीलीय अधिकारी ने प्रार्थी का पक्ष जाने बिना ही अपील का निपटारा किया.
फिर सोमदत्त ने इसे राज्य सूचना आयोग के समक्ष चुनौती दी. राज्य सूचना आयोग ने सोमदत्त की अपील को स्वीकार करते हुए सूचना देने के आदेश के साथ-साथ डॉक्टर पर जुर्माना भी लगाया था. राज्य सूचना आयोग के इस निर्णय को डॉक्टर सुखजीत सिंह ने हाई कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई. याचिका में डॉक्टर ने अदालत में ये दलील दी कि राज्य सूचना आयोग ने अपना फैसला बिना सोचे समझे दिया है. यह निर्णय सूचना के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है. याचिका में दलील दी गई थी कि डॉक्टर को किसी बीमारी के कारण पर अपनी राय देने के लिए फोर्स नहीं किया जा सकता. बीमारी पर राय देना सूचना के अधिकार अधिनियम के क्षेत्राधिकार से बाहर है. हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता डॉक्टर की दलीलों से सहमति जताते हुए राज्य सूचना आयोग के निर्णय को निरस्त कर दिया.
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