सोनीपत: गोहाना की जलेबी हमेशा से लोगों की पहली पसंद रही है. गोहाना की जलेबी का जलवा ही ऐसा है कि इसके कदरदान हरियाणा में ही नहीं बल्कि देश और विदेश में भी है. अनूठी विशेषताओं की वजह से गोहाना की जलेबी के दिवाने विदेशों में भी हैं. इस जलेबी को पहचान देने का श्रेय स्वर्गीय लाला मातूराम को जाता है.
क्या है जलेबी में खास?
- लाला मातूराम की जलेबी कोई सामान्य जलेबी नहीं है, इनका आकार सामान्य जलेबी से ज्यादा बड़ा है.
- एक जलेबी का वजन 250 ग्राम. एक किलो में 4 जलेबी ही आती हैं.
- मातूराम की जलेबी ऊपर से तो करारी है और अंदर से नरम है. जबकि सामान्य जलेबी बस करारी होती है.
- सबसे बड़ी बात ये जलेबी देसी घी में बनाई जाती है. इसमें किसी तरह की कोई मिलावट नहीं होती.
- जलेबी में किसी भी तरह का कोई रंग और रसायन नहीं डाला जाता. ग्राहकों को ताजा जलेबी दी जाती है.
- मिलावट नहीं होने की वजह से ये जलेबी 10 से 12 दिन के बाद भी खराब नहीं होती और ना ही इसके स्वाद में कमी आती है.
कैसे हुई जलेब के स्वाद की शुरुआत?
इस जलेब यानी जलेबी को इजाद करने वाले थे लाला मातूराम, जो मूल रूप से गोहाना के लाठ जोली गांव के निवासी थे. लाला मातूराम का पैतृक व्यवसाय कृषि था, लेकिन हलवाई के काम में भी उनकी रूचि थी. अपनी रूचि के चलते लाला मातूराम हलवाई के रूप में दूर-दूर तक मशहूर हो गए.
पेशे से किसान थे लाला मातूराम
साल 1955 में लाला मातूराम लाठ जोली गांव से गोहाना आ गए. यहां उन्होंने हलवाई के पेशे को जारी रखा. जलेबी के प्रति लोगों के बढ़ते रुझान को देखते हुए साल 1955 में ही लाला मातूराम ने पुरानी मंडी में लकड़ी का खोखा तैयार किया और उसमें जलेबी बनाने की काम शुरू कर दिया. जो साल 1968 तक जारी रहा.
इस तरह मिली नई पहचान
साल 1968 में सरकार ने गोहाना मंडी में आधा दर्जन दुकानें बनाई. इन दुकानों को सरकार ने व्यापारियों को 100 साल के लिए पट्टे पर दे दिया. सौभाग्य से इसमें से एक दुकान मातूराम को मिल गई. इसके बाद लोगों को लाला मातूराम की जलेबी एक सुनिश्चित स्थान पर सहज सुलभ होने लगी और दूर-दराज के लोगों का उसकी दुकान पर तांता लगने लगा.