कुल्लू: पुराना राजस्व रिकॉर्ड, पुराने मंदिर की घंटियां या कोई पुराना बर्तन, इन सबपर टांकरी लिपि के ही शब्द मिलेंगे. यही वजह है कि हिमाचल के इतिहास के बारे में ज्यादातर चीजें इसी लिपि में लिखी गई हैं. अब समय के साथ लिपि लुप्त हो रही है लेकिन इसे बचाने की कोशिशें की जा रही हैं.
शारदा लिपि से निकली है टांकरी लिपि
टांकरी लिपि ब्राह्मी परिवार की लिपियों का ही हिस्सा है जो कश्मीरी में प्रयोग होने वाली शारदा लिपि से निकली है. जम्मू कश्मीर की डोगरी, हिमाचल प्रदेश की चम्बियाली, कुल्लुवी, और उत्तराखंड की गढ़वाली समेत कई भाषाएं टांकरी में लिखी जाती थी. हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, ऊना, मंडी, बिलासपुर, हमीरपुर में व्यापारिक, राजस्व रिकॉर्ड और संचार इत्यादि के लिए भी टांकरी का ही प्रयोग होता था.
लुप्त होने की कगार पर पहुंची टांकरी
समय के साथ टांकरी का इस्तेमाल कम होता गया और आज टांकरी लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है. लेकिन कुल्लू के यतिन पंडित लुप्त हो रही टांकरी को जिंदा रखने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं. यतिन दूसरे लोगों को टांकरी का ज्ञान दे रहे हैं. अपनी इस कोशिश में यतिन हिमाचल के अलावा पंजाब, दिल्ली, इंग्लैंड, जर्मनी के 210 लोगों को टांकरी का ज्ञान दे चुके हैं.
लोगों को लिपि का ज्ञान दे रहे कुल्लू के यतिन