कुल्लू: सदियों से भारत लघु उद्योगों का केंद्र रहा है, यहां पर हाथ से बनाई गई चीजों को विश्वभर में ख्याति प्राप्त है, लेकिन औद्योगीकरण की वजह लघु उद्योग अपना वजूद खोते जा रहे हैं. कुल्लू के बुनकरों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. हाथों से खड्डी में ताना-बाना बुन कर कुल्लवी शॉल, टोपी, मफलर तैयार करने वाले बुनकरों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. वहीं, अब कोरोना इन पर कहर बनकर टूटा है.
कुल्लू में बुनकरों का काम पर्यटन पर ही टिका हुआ है. जो भी पर्यटक कुल्लू घूमने के लिए आते हैं, वह अपने साथ कुल्लू से यादों के रूप में टोपी, मफलर, शॉल खरीदना नहीं भूलते. शायद यही वजह है कि आज बुनकरों का यह कारोबार सही सलामत है, लेकिन कब तक इस बात को कोई नहीं जानता.
कुल्लू में बरसों से हैंडलूम का काम किया जा रहा है, लेकिन अब यह अपना अस्तित्व खोते जा रहा है. सदियों से इस काम को करती आ रही कई पीढ़ियां अपने बच्चों से यह काम नहीं करवाना चाहती, क्योंकि अब यह काम मुनाफे का नहीं, बल्कि मुसीबत का बनता जा रहा है. जिसको लेकर कुल्लू के बुनकरों ने सरकार से उन्हें बाजार उपलब्ध करवाने की मांग उठाई है.