ज्वालामुखी:जिस पहाड़ी बोली को अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ जन जागरण के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम ने स्वतंत्रता पाने के लिए सबसे बड़ा हथियार बनाया. उस पहाड़ी बोली को भी बाबा की ही तरह वो सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था.
पहाड़ी बोली, भाषा बनने के लिए आज भी सरकारों का मुंह ताक रही है. बात यहीं खत्म नहीं होती, पहाड़ी बोली को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू किया गया राज्यस्तरीय सम्मान भी 1999 के बाद से फाइलों में सिमट कर रह गया है. प्रसंगवश ना तो अभी तक पहाड़ी को संविधान की 8वीं अनुसूचि में शामिल किया गया है ओर ना ही इसके लिए कोई प्रतिबद्धता जता रहा है.
यह विडंबना ही है कि जिस प्रदेश की नींव स्थानीय बोली के आधार पर की गई हो वहां पर इस बोली को प्रोत्साहित करने के लिए एक अदद सम्मान भी आज के दौर में नहीं दिया जा रहा है.
कब किसे दिया गया सम्मान
राज्य भाषा एवंम संस्कृति विभाग द्वारा पहाड़ी को प्रोत्साहित करने के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम के नाम पर पहला राज्य स्तरीय सम्मान वर्ष 1989 में दिया गया था, जबकि 1999 में जाने माने साहित्यकार डॉ. प्रेम भारद्वाज को इस सम्मान से नवाजा गया था. यह सम्मान पहाड़ी बोली को बढ़ावा देने व प्रोत्साहित करने के लिए शुरू किया गया था.
सम्मान बाबा कांशीराम के नाम पर क्यूँ?
महान स्वतंत्रता सेनानी पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम के नाम पर इस राजकीय सम्मान को दिए जाने के पीछे तर्क यह था कि आजादी के दौर में भी अंग्रेजी हकूमत को पछाड़ने के लिए बाबा ने अपने पहाड़ी में लिखे गीतों व कविताओं को जनजागरण का हिस्सा बनाया.
पहाड़ी बाबा कांशीराम. फाइल बाबा का तर्क था कि जो बात अपनी मां बोली में लोगों तक पहुंचाई जा सकती है उसे अन्य किसी साधन के माध्यम से नहीं पहुंचाया जा सकता. उन्होंने पहाड़ी भाषा को ही अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को जागरूक करने के लिए अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया. उन्होंने 500 के करीब कवितायें व लघु कथायें लिखीं थीं.
हिमाचल गठन में पहाड़ी बोली की भूमिका
1 नम्बर 1966 को जब टेरिटोरियल काउंसिल ने पंजाब का पुनर्गठन किया तो पंजाब के पहाड़ी इलाके के कई हिस्से हिमाचल का अंग बने. कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल स्पीति, शिमला, नालागढ़, ऊना, डलहौजी, बकलोह आदि क्षेत्रों को पंजाब से हटाकर हिमाचल में शामिल किया गया, क्योंकि इन सभी क्षेत्रों में पहाड़ी मुख्य बोली थी. लगभग 30 रियासतों को बोली के आधार पर पंजाब से अलग करके हिमाचल का अंग बनाया गया था.
पहाड़ी की प्रोत्साहित करने के लिए बना विभाग और अकादमी
राज्य में पहाड़ी को प्रोत्साहित करने के लिए 1972 में भाषा एवम संस्कृति विभाग व हिमकला संस्कृति भाषा अकादमी का गठन हुआ था. लाल चंद प्रार्थी पहले लोक संस्कृति मंत्री तो हरि चंद पराशर विभाग के पहले डायरेक्टर बने थे.
पहाड़ी को प्रोत्साहित करने के लिए किसने क्या किया?
प्रोफेसर पीएन शर्मा ने मिर्जा गालिब की गजलों का पहाड़ी में अनुवाद करके पहाड़ी का विस्तार करने में अपना योगदान दिया, जबकि देशराज डोगरा, मनोहर सागर पालमपुरी, डॉ. गौतम व्यथित, डॉ. पीयूष गुलेरी, प्रत्यूष गुलेरी, शेष अवस्थी, सुदर्शना डोगरा, आचार्य चन्द्रमणि वशिष्ठ, डॉ. शबाब ललित, पूर्व सांसद व कैबिनेट मंत्री स्वर्गीय नारायनचंद पराशर इत्यादि पहाड़ी लेखकों ने बहुमूल्य योगदान दिया व दे रहे हैं.
विधानसभा से लेकर संसद तक उठी मांग
पहाड़ी बोली को संविधान की 8वीं सूची में शामिल करने के लिए हिमाचल प्रदेश विधानसभा से लेकर संसद तक मांग उठ चुकी है, लेकिन परिणाम शून्य ही रहा. हिमाचल निर्माता व प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार और पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के समय यह मसला दो बार विधानसभा में उठा, जबकि पहाड़ी के पैरोकार रहे पूर्व सांसद स्वर्गीय नारायनचंद पराशर ने संसद तक पहाड़ी को हक दिलवाने की कोशिश की.
राज्य भाषा एवंम संस्कृति विभाग की डायरेक्टर कुमुद सिंह ने बताया कि पहाड़ी को प्रोत्साहित करने के लिए दिए जाने वाला राज्यस्तरीय सम्मान लंबे समय से बंद है. इसकी जानकारी उन्हें मिली है. यह क्यूं बंद हुआ और अब इसे किस तरह शुरू किया जा सकता है. इस पर अध्ययन करेंगी. यदि मुनासिफ हुआ तो इस प्रोत्साहन सम्मान को शुरू करने के लिए सरकार से प्रार्थना की जाएगी.
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