सोलन: ये बानगी भर है उस युग पुरुष, योगी, दार्शनिक एवं दूरद्रष्टा की, जिसने पहाड़ों की भोली-भाली, कम साक्षर और भौगोलिक परिस्थितियों से जूझ रही जनता को विकास के सपने दिखाए. साथ ही उनका पूरा ताना-बाना बुन कर भविष्य की राह पर अग्रसर भी किया. वह हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार ही थे, जिन्होंने एलएलबी और पीएचडी होने के बावजूद धन-दौलत या उच्च पदों का लोभ नहीं किया, बल्कि सर्वस्व प्रदेशवासियों को पहाड़ी होने का गौरव दिलाने में न्योछावर कर दिया.
परमार हिमाचल की राजनीति के पुरोधा और प्रथम मुख्यमंत्री ही नहीं थे, वह एक राजनेता से कहीं बढ़कर जननायक और दार्शनिक भी थे, जिनकी तब की सोच पर आज प्रदेश चल रहा है. विश्व भर में अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात आधुनिक हिमाचल प्रदेश की नींव एक ऐसे शख्स ने रखी थी, जिसकी जीवन भर की पूंजी नैतिकता और ईमानदारी थी. समूची दुनिया उस शख्सियत को हिमाचल निर्माता डॉ. वाईएस परमार के नाम से जानती है.
डॉ. परमार का आज जयंती दिवस है. समय के इस दौर में जब राजनेता करोड़ों-अरबों की संपत्ति के मालिक हैं, हिमाचल निर्माता ने जब संसार छोड़ा तो उनके खाते में महज 563 रुपए तीस पैसे थे. बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. वाईएस परमार का सारा जीवन ईमानदारी से गुजरा और उन्होंने अपने लिए कोई संपत्ति नहीं बनाई. समूचा प्रदेश डॉ. परमार की 115 वीं जयंती पर उन्हें याद कर रहा है.
डॉ. यशवंत सिंह परमार का जन्म 4 अगस्त 1906 को तत्कालीन सिरमौर रियासत के चन्हालग गांव में भंडारी शिवानंद सिंह के घर पर हुआ. उन्होंने सन् 1922 में स्टेट हाईस्कूल नाहन से मैट्रिक, सन् 1926 में क्रिश्चियन कॉलेज फॉर मैन लाहौर से बीए ऑनर्स, सन् 1928 में केनिंग कॉलेज, लखनऊ से एमए व एलएलबी और 1944 में लखनऊ यूनिवर्सिटी से सोशियो इकोनामिक बैकग्राउंड ऑफ हिमालयन पाॅलियेंडरी विषय में पीएचडी की थी. युवा काल से ही संघर्ष उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया था.
रियासत की नौकरी को दरकिनार कर उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया. यह उनकी दूरदर्शी सोच का ही परिणाम था कि 26 जनवरी 1948 को शिमला में आयोजित हुई सार्वजनिक सभा में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रीय नेतृत्व से अनुरोध किया गया कि यहां की सभी पहाड़ी रियासतों को इकट्ठा करके, एक नए राज्य का गठन किया जाए.
हिमाचल की राजधानी शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान पर स्थापित प्रतिमाएं सबका ध्यान अपनी तरफ खींचती हैं. इन प्रतिमाओं में एक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और एक प्रतिमा पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की है. एक अन्य प्रतिमा अलग से स्थापित है, जिसके नीचे लिखे हैं ये शब्द-हिमाचल निर्माता डॉ. वाईएस परमार. ये शब्द सभी को जिज्ञासा से भरते होंगे. यहां हिमाचल निर्माता के जीवन के अनछुए पहलुओं से रू-ब-रू होना जरूरी है.
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. वाईएस परमार कुशल राजनेता के साथ-साथ कला व साहित्य प्रेमी भी थे. हिंदी, अंग्रेजी और ऊर्दू भाषाओं पर कमाल का अधिकार रखने वाले डॉ. परमार हमेशा जमीन से जुड़े ठेठ पहाड़ी ही बने रहना पसंद करते थे. सिरमौर के अति दुर्गम और पिछड़े गांव चन्हालग में जन्मे परमार ने सारी उम्र परंपरागत पहाड़ी परिधान लोइया व सुथणु आदि ही पहना. लखनऊ से ही परमार ने पीएचडी की डिग्री ली और बाद में हिमाचल यूनिवर्सिटी से डॉक्टर ऑफ लॉ भी बने. वे देहरादून में थियोसॉफिकल सोसायटी के सदस्य भी रहे. गुलाम भारत में रियासती समय में डॉ. परमार 1930 में सिरमौर रियासत के जज बने. सात साल तक न्यायाधीश के तौर पर काम किया. बाद में डिस्ट्रिक्ट व सेशन जज बने और 1941 तक इस पद पर रहे.
डॉ. परमार ने पहाड़ों के विकास का खाका तैयार किया है और उनका जीवन आज भी उनके चहेतों के बीच जिंदा है. डॉ. परमार को चाय और छोले पूरी खाना बेहद पसंद था, इसलिए जब भी वह सिरमौर से शिमला जाते या फिर शिमला से सिरमौर जाते हुए सोलन रुकते थे, तो वह सोलन बस स्टैंड पर एक छोटी सी दुकान जिसका नाम प्रेमजीस हुआ करता था, वहां पर अकसर बैठा करते थे.
भले ही आज डॉ. यशवंत सिंह परमार हमारे बीच में नहीं है, लेकिन उनके चहेतों के दिलों में आज भी उनकी यादें मौजूद हैं. सोलन के प्रेमचंद शर्मा बताते हैं कि जितने बड़े आदमी डॉ. यशवंत सिंह परमार थे, उनके बारे में बात भी करना या उनके बारे में कुछ भी बोलना ठीक नहीं लगता है. उन्होंने बताया कि आज भी जब उनकी याद आती है तो मन उल्लास से भर जाता है. प्रेमचंद कहते हैं कि आज अगर वह हमारे बीच होते तो हिमाचल में ऐसा विकास होता जो कभी सोच भी नहीं सकते.
प्रेमचंद शर्मा ने बताया कि जब वह डॉ. परमार से मिले तो वह बहुत कम आयु के थे. उनकी उम्र उस समय लगभग 20 से 25 साल की आयु की रही होगी, लेकिन डॉ. परमार का मार्गदर्शन उन्हें मिलता था. उन्होंने कहा कि एक बार जब वह शिमला उनसे मिलने गए तो दफ्तरों में बैठने और ना ही पानी पीने की सुविधा होती थी. डॉ. परमार के शब्द आज भी गूंजते है कानों में प्रेमचंद शर्मा ने बताया कि जब भी डॉ. परमार गांव जाते थे या फिर सोलन में रुकते थे तो वह हमेशा उनकी दुकान पर चाय और पुरी का नाश्ता किया करते थे, एक बार की बात है जब उन्होंने चाय और पूरी के पैसे लेने से मना किया तो डॉ. परमार खड़े होकर कहने लगे कि प्रेम तुम मेरा दुकान में आने का रास्ता बंद कर रहे हो.
प्रेमचंद शर्मा ने एक वाक्य याद करते हुए बताया कि एक बार की बात है. जब डॉ. परमार अपने गांव सिरमौर जा रहे थे तो बस ओल्ड बस स्टैंड पर खड़ी थी और डॉ. परमार उनकी दुकान पर चाय पीने के लिए आ गए, उस समय प्रेमचंद शर्मा ने कहा कि डॉ. परमार मैं आपका सामान फ्रंट सीट पर रख देता हूं तो डॉ.परमार जोर -जोर से ठहाका लगाकर हंसने लगे.
साहित्यकार मदन हिमाचली ने डॉ परमार जी के साथ बिताए समय को याद करते हुए बताया कि जब भी वह परमार साहब से मिले तब-तब वह हमेशा हिमाचल के लोगों की विकास की बातें किया करते थे. वह कहते थे कि जिस तरह से बड़े-बड़े शहरों में हर सुविधा हर व्यक्ति को मिलती है, उसी तरह हर सुविधा हिमाचल के हर एक गांव में मिले. प्रेमचंद शर्मा ने कहा कि डॉ. परमार हमेशा 100 साल आगे की सोच रखते थे, हिमाचल का आदमी भी हर सुबे की तरह हर चीजों में आगे रहे यह डॉक्टर परमार की सोच हुआ करती थी.
हिमाचल में राजशाही के खिलाफ प्रजामंडल आंदोलन शुरू हुआ. इस आंदोलन के क्रांतिकारियों पर झूठे मामले बनाए जाने लगे तो परमार से रहा न गया. ये मामले डॉ. परमार की अदालत में आए तो उन्होंने आंदोलनकारियों के हक में फैसले देना शुरू किया. परमार की यह बात सिरमौर रियासत के राजाओं को नागवार गुजरी. राजाओं की नाराजगी देखते हुए परमार ने खुद ही न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दे दिया और खुलकर राजशाही के खिलाफ बोलने लगे. प्रजामंडल आंदोलन के सफल होने के बाद डॉ. परमार वर्ष 1948 से 1952 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे.
डॉ. परमार 3 मार्च 1952 से 31 अक्टूबर 1956 तक हिमाचल प्रदेश केमुख्यमंत्री रहे. वर्ष 1956 में जब हिमाचल यूनियन टेरेटोरियल बना तो परमार 1956 से 1963 तक संसद सदस्य रहे. हिमाचल विधानसभा गठित होने के बाद वे जुलाई 1963 में फिर से मुख्यमंत्री बने. परमार ने ही पंजाब में शामिल कांगड़ा व शिमला के कुछ इलाकों को हिमाचल में शामिल करवाने में अहम भूमिका निभाई थी. यहां बता दें कि कुछ नेता हिमाचल को पंजाब का हिस्सा बनाना चाहते थे, लेकिन परमार के होते यह संभव नहीं हो पाया.
पर्यावरण की जिस चिंता में आज देश-प्रदेश ही नही पूरा विश्व डूबा है, उस कर्मयोद्धा ने इसकी आहट को दशको पहले ही सुन लिया था. एक भाषण में उन्होने कहा था '...वन हमारी बहुत बड़ी संपदा है, सरमाया है. इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल मे करनी है, नंगे पहाड़ो को हमे हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा. प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा लगाना होगा और पौधे ऐसे हो जो पशुओं को चारा दे, उनसे बालन मिले और बड़े होकर इमारती लकड़ी के साथ आमदनी भी दे. एक मंत्र और सुन ले केवल पौधा लगाने से कुछ नहीं होगा, उसे पालना व संभालना होगा. वनों के त्रिस्तरीय उपयोग को लेकर परमार का कहना था कि कतारों में लगाए इमारती लकड़ी के जंगल प्रदेश के फिक्स डिपोजिट होंगे. बाग-बगीचे लगाकर हम तो संपन्न हो सकते हैं, लेकिन वानिकी से पूरे प्रदेश मे संपन्नता आएगी.''
जनवरी 1971 में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और इसमें डॉ. वाईएस परमार का बड़ा योगदान था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिमला के रिज मैदान पर 25 जनवरी 1971 को हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की घोषणा की थी. बाद में परमार ने वर्ष 1977 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. परमार ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक पोलीएंड्री एन हिमाचल भी लिखी थी. भारत सरकार ने डॉ. परमार पर डाक टिकट भी जारी किया था. डॉ. परमार का हिमाचल के विकास को लेकर विजन बिल्कुल स्पष्ट था. वे पूरे प्रदेश में प्राथमिकता के आधार पर सड़कों का जाल बिछाने की मुहिम में जुटे थे. वे सड़कों को पहाड़ के निवासियों की भाग्य रेखा कहते थे. ईमानदारी के जीवंत प्रतीक डॉ. वाईएस परमार ने 2 मई 1981 को शरीर त्याग दिया. डॉ. वाईएस परमार की जयंती पर हिमाचल में साहित्यिक आयोजन नियमित रूप से होते हैं. डॉ. परमार के नाम पर हिमाचल के सोलन जिला में बागवानी और वानिकी नौणी विश्वविद्यालय भी है.
कहा जाता है कि पहाड़ का विकास पहाड़ी ही कर सकता है, डॉ. यशवंत सिंह परमार ने ना केवल इस कहावत को पूरा किया बल्कि देश को हिमाचल के विशुद्ध पहाड़ी संस्कृति से रू-ब-रू भी करवाया. डॉ. परमार के सपनों का हिमाचल एक ऐसा आधुनिक हिमाचल था. जहां लोग शिक्षित व संपन्न हो, आवागमन के अछे साधन हो और देश के मानचित्र पर हिमाचल एक अलग नाम हो. डॉ. परमार ने हिमाचल की आबोहवा के अनुरूप यहां बागवानी को विस्तृत फलक प्रदान किया. आज सेब से लदे बगीचे, नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं, गांव-गांव तक सड़कों का जाल, ज्ञान के अलख जगाते शिक्षा के मंदिर यह कृतज्ञ होकर डॉ. परमार को जीवंत श्रद्धांजलि दे रहे हैं.
डॉ. परमार बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी कुशल प्रशासक एवं राजनीतिज्ञ, प्रखर वक्ता, विधिवेता और हर हिमाचली के प्रिय इमानदार राजनेता थे. उन्होंने आदर्श विधायी परंपरा के उदाहरण प्रस्तुत किए, 8 पुस्तकें भी लिखी. डॉ. परमार एक व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था थे. उनमें जन-जन को साथ लेकर चलने की अद्भुत क्षमता थी. इस अजीमो-शान- शख्सियत ने उन ऊंचाइयों को छुआ जहां तक बिरले ही पहुंच पाते हैं. 2 मई 1981 नियति के क्रूर हाथों ने डॉ. परमार को हमसे छीन लिया और डॉ. परमार हमारे लिए छोड़ गए जीवंत, सशक्त एवं आत्मनिर्भर हिमाचल.
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