शिमला: हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में 9 सितंबर 1974 को जन्मे विक्रम बत्रा 7 जुलाई को कारगिल युद्ध में शहीद हो गए थे. विक्रम बत्रा ने कारगिल के पांच सबसे मेन पॉइंट जीतने में अहम रोल अदा किया था. विक्रम बत्रा ने शहीद होने से पहले अपने कई साथियों की जान बचाई. या यूं कहे कि अपने साथियो की जान बचाते-बचाते शहीद हो गए.
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म हिमाचल में कांगड़ा जिले के पालमपुर में जीएल बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर पर हुआ था. बेटियों के बाद कमलकांता ने दो जुड़वां बच्चों का जन्म दिया. दोनों का नाम लव-कुश रखा. लव (विक्रम) और कुश विशाल बत्रा. कैप्टन बत्रा के जन्म के समय परिवार मंडी के जोगेंद्रनगर इलाके में रहता था. बाद में स्थाई रूप से ये लोग पालमपुर में आकर बस गए.
मां थी पहली टीचर
शहीद विक्रम बत्रा की मां कमल बत्रा एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं. ऐसे में कैप्टन बत्रा की प्राथिमक शिक्षा घर पर ही हुई थी. इकसे बाद विक्रम का एडमिशन पहले डीएवी स्कूल में दाखिल लिया. केंद्रीय स्कूल पालमपुर 12वीं की शिक्षा हासिल करने के बाद डीएवी कालेज चंडीगढ़ से बीएससी की डिग्री हासिल.
पिता से सुनी थी देशप्रेम की कहानियां
पालमपुर कैंटोनमेंट में स्कूली शिक्षा के दौरान सेना के अनुशासन को देख और पिता से देशप्रेम की कहानियां सुनते-सुनते विक्रम बत्रा में देश प्रेम की भावना जागी. स्कूल-कॉलेज में वह एनसीसी के होनहार कैडेट थे, इसी की वजह से उन्होंने सेना में जाने का निर्णय लिया.
ठुकरा दी थी मर्चेंट नेवी की नौकरी
देश और देशवासियों के प्रति उनका प्यार किस कदर था, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि 18 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी आंखें दान कर दी थीं. विक्रम को ग्रैजुएशन के बाद हॉन्ग कॉन्ग में भारी वेतन पर मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन सेना में जाने के जज्बे वाले विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया और इंडियन आर्मी को चुना. 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में एडमिशन लिया. दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जैक राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली.
विक्रम बत्रा एक फौलादी कमांडो थे. एक जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया. हम्प और राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया था. इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर 5140 पॉइंट को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया.
प्वांइट 5140 पर कब्जा
कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह साढ़े तीन बजे दुश्मन की नाक के नीचे से पॉइंट 5140 छीन लिया था. उन्होंने अकेले ही 3 घुसपैठियों को मार गिराया था.प्वांइट 5140 बड़ा महत्वपूर्ण और रणनीतिक प्वांइट था, क्योंकि ये एक ऊंची, पहाड़ी पर पड़ता था. वहां छिपे पाकिस्तानी घुसपैठिए भारतीय सैनिकों पर ऊंचाई से गोलियां बरसा रहे थे.
करगिल युद्ध में विक्रम बत्रा कारगिल के युद्ध के दौरान उनका कोड नाम 'शेर शाह' था. पॉइट 5140 चोटी पर बहादुरी के चलते पाकिस्तानी सेना ने उनको ये नाम दिया था. विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजयघोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना के साथ पूरे भारत बढ़ी हुई दाढ़ी बाले 24 साल के इस लड़के का नाम जान गया था. अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आई तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा.
4875 पॉइंट पर दुश्मन अभी कब्जा किए हुए था. सेना ने इसे कब्जे में लेने का अभियान शुरू किया. विक्रम बत्रा की बहादुरी को देखते हुए सेना ने ये जिम्मा भी विक्रम को सौंपा. उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा. सात जुलाई को मिशन लगभग पूरा हो ही चुका था, लेकिन लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे. कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए उनको पीछे घसीट रहे थे उसी समय उनके सीने पर गोली लगी और वे 'जय माता दी' कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए.
इस लड़ाई में कैप्टन अनुज नायर भी शहीद हो गए थे. अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को परमवीर चक्र और अनुज नायर को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा ने ये सम्मान प्राप्त किया था.
कारगिल के पांच सबसे इंपॉर्टेंट पॉइंट जीतने में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी. विक्रम बत्रा का ‘ये दिल मांगे मोर’ डायलॉग बहुत फेमस था. हर चोटी पर फतह हासिल करने के बाद वो अपना पसंदीदा डयलॉग बोलते थे 'ये दिल मांगे मोर' यानी अभी काम खत्म नहीं हुआ है. उन्हे और दुश्मनों का खात्मा करना है. वो अभी रुकना नहीं चाहते थे.
कैप्टन विक्रम बत्रा के बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता, लेकिन बिक्रम बत्रा कुछ और ही ठानकर रण में उतरे थे. 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा – प्रिय कुश, मां और पिताजी का ख्याल रखना. यहां कुछ भी हो सकता है. कारगिल युद्ध के दौरान उन्होने कहा था कि या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा या तिरंगे में लिपटा हुआ, पर मैं आउंगा जरूर.