शिमला: चार साल पहले सर्दियों के मौसम की बात है. हिमाचल की सत्ता पहाड़ की राजनीति के राजा कहे जाने वाले वीरभद्र सिंह के हाथ में थी. वे छठी दफा हिमाचल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए थे. हिमाचल में विधानसभा चुनाव दस्तक देने वाले थे. ठीक उसी समय शिमला में मुख्यमंत्री के सरकारी आवास ओक ओवर में तत्कालीन सीएम वीरभद्र सिंह के विधानसभा क्षेत्र शिमला (ग्रामीण) से एक प्रतिनिधिमंडल मुलाकात के लिए आया था. शुक्रवार 27 जनवरी 2017 की सर्द शाम को समर्थकों के बीच वीरभद्र सिंह ने अचानक से एक बात कहकर गर्मी ला दी. वीरभद्र सिंह समर्थकों से बोले-यदि आप इजाजत दें तो शिमला (ग्रामीण) से विक्रमादित्य सिंह को चुनाव लड़वाना चाहता हूं.
वीरभद्र के इतना कहते ही ओक ओवर का वह कक्ष तालियों से गूंज उठा. दरअसल, इन्हीं तालियों की गड़गड़ाहट ने ये संकेत दे दिया था कि पिता वीरभद्र सिंह अपनी विरासत बेटे विक्रमादित्य सिंह को सौंपने की तैयारी कर चुके हैं. बाद में विक्रमादित्य सिंह शिमला ग्रामीण विधानसभा से चुनावी मैदान में उतरे और पहली बार विधायक बनें. वीरभद्र सिंह ने खुद के लिए अर्की सीट चुनी. अर्की में दस साल से भाजपा का डंका बज रहा था. इसे वीरभद्र सिंह के राजनीतिक कद का कमाल ही कहा जाएगा कि वे अर्की सीट से चुनाव जीत गए. इस तरह मौजूदा विधानसभा में पिता वीरभद्र सिंह और बेटे विक्रमादित्य सिंह दोनों विधायक के तौर पर हैं. फादर्स डे पर पिता-पुत्र की इस राजनीतिक जोड़ी को समझना रोचक होगा.
बेटे विक्रमादित्य को राजनीति के दांव-पेच सिखा रहे वीरभद्र सिंह
वीरभद्र सिंह का हिमाचल की राजनीति में जो स्थान है, वो किसी परिचय का मोहताज नहीं है. ये सही है कि वीरभद्र सिंह के कद के आसपास पहुंचना अभी विक्रमादित्य सिंह के लिए सपने जैसा है, लेकिन पिता के मार्गदर्शन में वे राजनीति की ए बी सी सीखते-सीखते जेड तक की सफल पारी खेल सकते हैं. वंशवाद से इतर इस जोड़ी को फादर्स डे के संदर्भ में देखना चाहिए. समय और उम्र से उपजी परिस्थितियों की वजह से वीरभद्र सिंह राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं. ऐसे में उनके पास बेटे विक्रमादित्य को स्थापित करने के लिए शानदार अवसर है. अपने पांच दशक के राजनीतिक जीवन में कमाई अनुभव की पूंजी वे बेटे विक्रमादित्य सिंह के चेतन और अवचेतन में ट्रांसफर करने में जुटे हैं. राजनीति के दांव-पेच की एक-एक कड़ी से वे विक्रमादित्य को लैस कर रहे हैं. कैसे सत्ता के साथ कदमताल करनी है और कैसे विरोधियों के दांव की काट निकालनी है, इसे वीरभद्र सिंह से बेहतर भला कौन जान सकता है.
हर मौके पर पिता के साथ खड़े रहते हैं विक्रमादित्य
विक्रमादित्य सिंह भी अपने पिता को राजनीति में गुरू मानते हैं. वे कई अवसरों पर कह चुके हैं कि पिता वीरभद्र सिंह की तरह ही वे जनसेवा करना चाहते हैं. परिवार में उत्सव की घड़ी हो या कोई पर्व मनाने की बात, पिता वीरभद्र सिंह के जन्मदिवस पर उमड़ने वाला समर्थकों का मेला हो या फिर अन्य कोई मौका, विक्रमादित्य सिंह उनके आसपास नजर आते हैं. पिता वीरभद्र सिंह ने भी विक्रमादित्य को धीरे-धीरे और सहज भाव से राजनीतिक चाल चलने के गुरु मंत्र दिए हैं. फादर्स डे के मौके पर वीरभद्र सिंह के सियासी सफर पर भी नजर डालना जरूरी है.
लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा से राजनीति में आए थे वीरभद्र सिंह
हिमाचल के मुख्यमंत्री के राजनीतिक जीवन के पांच दशक की यात्रा की शुरुआत भी अचानक हुई. पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा से वीरभद्र सिंह राजनीति में आए. वीरभद्र का इरादा अध्यापन करने का था. बुशहर रियासत के इस राजा ने आरंभिक स्कूली शिक्षा शिमला के विख्यात बिशप कॉटन स्कूल से हुई. उसके बाद दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से बीए (आनर्स) की डिग्री हासिल की. अध्ययन के बाद वे लाल बहादुर शास्त्री की सलाह पर 1962 के लोकसभा चुनाव में खड़े हो गए. महासू सीट से उन्होंने चुनाव जीता और तीसरी लोकसभा में पहली बार सांसद बने. अगला चुनाव भी वीरभद्र सिंह ने महासू से ही जीता. फिर 1971 के लोकसभा चुनाव में भी वे विजयी हुए.
यही नहीं, वीरभद्र सिंह 7वीं लोकसभा में भी सदस्य थे. उन्होंने 1980 का लोकसभा चुनाव जीता. अंतिम लोकसभा चुनाव उन्होंने मंडी सीट से वर्ष 2009 में जीता और केंद्रीय इस्पात मंत्री बने. इस तरह वीरभद्र सिंह पांच बार सांसद रहे. वे पहली बार केंद्रीय कैबिनेट में वर्ष 1976 में पर्यटन व नागरिक उड्डयन मंत्री बने. फिर 1982 में उद्योग राज्यमंत्री का पदभार संभाला. वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद वे यूपीए कैबिनेट में इस्पात मंत्री बने. बाद में उन्हें केंद्रीय सूक्ष्म, लघु व मध्यम इंटरप्राइजेज मंत्री बनाया गया.